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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-२/७४ अहो, प्रभो! आप अनुपम अतीन्द्रिय आत्मसुख को शुद्धोपयोग के प्रसाद से अनुभव कर रहे हो। हमारा भी यही मनोरथ है कि हमें भी ऐसा उत्कृष्ट सुख प्राप्त होवे। 1 - ऐसी प्रसन्नता पूर्वक स्तुति करके हनुमान केवली प्रभु की सभा में बैठे। पाठको, आपको ज्ञातव्य हो कि महाराजा रावण भी इन्हीं केवली प्रभु की सभा में बैठ कर धर्मोपदेश सुन रहे थे।
चारों ओर आनंद फैलाती हुई, प्रभु की दिव्य वाणी खिर रही थी; भव्यजीव प्रसन्नता से झूम रहे थे। जैसे भयंकर गर्मी के बीच मेघ वर्षा होवे
और जीवों को शांति हो, वैसे ही संसार के क्लेश से संतप्त जीवों का चित्त दिव्यध्वनि की वर्षा के द्वारा अत्यंत शांत हुआ।
प्रभु की दिव्यध्वनि में आया – “अहो जीवो ! संसार की चारों गतियाँ शुभ-अशुभ भावों के द्वारा दुःखरूप हैं, आत्मा की दशा ही परम सुखरूप है – ऐसा जानकर सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र के द्वारा उसकी साधना करो। राग से वे सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र - तीनों ही भिन्न हैं और आनंदरूप हैं।"
सभी भव्यजीव एकदम शांत चित्त से सुन रहे हैं, प्रभु कहते हैं कि आत्मा के चैतन्य सुख की अनुभूति के बिना अज्ञानी जीव पुण्य-पाप में मोहित रहते हैं और बाह्य वैभव की तृष्णा की वृद्धि में दुःखी होते हैं। अहो जीवो ! विषयों की लोलुपता छोड़कर अपनी आत्म-शक्ति को जानो। विषयातीत चैतन्य का महान सुख तुम्हारे में ही भरा है।
____ आत्मा को भूलकर विषयों के आधीन होकर जीव महानिंद्य पापकर्म करके नरकादि गति में महान दुःख भोगता है। अरे, अति दुर्लभ मनुष्य पर्याय प्राप्त करके भी जीव आत्महित नहीं करता और तीव्र हिंसाझूठ-चोरी आदि पाप करके नरक में चला जाता है। मद्य-माँस-मधु आदि अभक्ष्य का सेवन करनेवाले जीव नरक में जाते हैं और वहाँ उनके शरीर