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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-२ / ५६
वे आत्मध्यान में मग्न थे, उस समय संगम देव ने उपद्रव किया, लेकिन पारस मुनिराज तो आत्मसाधना में अडिग रहकर केवलज्ञान प्राप्त कर तीर्थंकर परमात्मा हुए.... इन्द्रों ने आकर आश्चर्यकारी महोत्सव मनाया । प्रभु की चरम महिमा को देखकर, कमठ के जीव उस संगम देव को अपनी भूल (अज्ञानता) का भान हुआ, क्षमा माँगकर भक्तिपूर्वक प्रभु का उपदेश सुनकर सम्यग्दर्शन प्राप्त किया।
पारस के साथ लोहा भी सोना बन गया । धन्य है सत्संग की महिमा ! जिसके प्रताप से हाथी का जीव मोक्षमार्गी बन गया ।
क्या आप जानते हैं ?
दो मनुष्य पास-पास बैठे हैं। दोनों के अंदर कोई विचार चल रहा है। एक ने क्या विचार किया - यह दूसरा उसे छूकर (स्पर्श करके) भी नहीं जान सकता।
दूसरे ने क्या विचार किया - इसे पहला, दूसरे को छूकर भी नहीं जान सकता । परंतु वे दोनों अपने-अपने अंदर विचारों को तो स्पष्ट जानते हैं। स्पर्श के द्वारा या आँख के द्वारा न दिखेऐसे अपने अरूपी विचारों का अस्तित्व जीव स्वयं स्पष्ट जान सकता है।
ऐसे अरूपी विचार जिसकी भूमिका में होते हैं और जो उन्हें जानता है, वह स्वयं अरूपी चैतन्य आत्मा है।
हमें भी इस सम्यग्ज्ञानी बालक की तरह चैतन्य स्वरूपी आत्मा और शरीर का भेदज्ञान करना चाहिये । “चैतन्य स्वरूपी आत्मा ” यह मैं हूँ तथा " जड़ शरीर" वह मैं नहीं हूँ । - इसप्रकार यथार्थ निर्णय करना चाहिये । •