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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-२/४४
भरत के मधुर वचन सुनते ही हाथी को बहुत शांति मिली, उसकी आँखों में से आँसू गिरने लगे, वैराग्य से विचार करने लगा कि -
"अरे, अब पश्चाताप करने से क्या लाभ ? अब मेरा आत्म कल्याण हो और मैं इस भवदुःख से मुक्त होऊँ । ऐसा उपाय करूँगा ।
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इसप्रकार परम वैराग्य का चिन्तन करते हुए हाथी एकदम शांत होकर भरत के सामने टुकुर टुकुर ( एकटक देखते खड़ा रहा। जैसे कह रहा हो -
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“हे बंधु ! तुम पूर्वभव के मेरे मित्र हो, पूर्वभव में स्वर्ग में हम दोनों साथ थे, अब मेरा आत्मकल्याण कराकर इस पशुगति से मेरा उद्धार करो। "
( वाह रे वाह ! धन्य हाथी ! उसने हाथी होकर भी आत्मा के कल्याण का महान कार्य किया । पशु पर्याय में होने पर भी परमात्मा को समझने के लिए अपना जीवन सार्थक किया । )
हाथी को एकाएक शांत हुआ देखकर लोगों को बहुत आश्चर्य हुआ - "अरे यह क्या हुआ ! भरत ने हाथी के ऊपर कैसा जादू किया ? वह एकाएक शांत कैसे हो गया ?"
भरत उसके ऊपर बैठकर नगरी में आया और हाथी को गजशाला में रखा, महावत उसकी खूब सेवा करते हैं, उसे मोहित करने के लिए संगीत करते हैं, उसको प्रसन्न करने का उपाय करते हैं।
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- लेकिन आश्चर्य की बात तो यह है कि हाथी अब कुछ खाता नहीं, संगीत आदि पर भी ध्यान नहीं देता, सोता भी नहीं, क्रोध भी नहीं करता, वह एकदम उदास ही रहता है । अपने आप में आँख बंद करके शांत होकर बैठा रहता है और आत्महित की बात ही विचारता रहता है। जाति - स्मरण को प्राप्त करके उसका मन संसार और शरीर से अत्यंत विरक्त हो गया है.....।