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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-२/४३ एक बार भरत सरोवर के किनारे गये, उसी समय गजशाला में क्या हुआ उसे सुनो !
___ गजशाला में बँधा त्रिलोकमण्डन हाथी मनुष्यों की भीड़ देखकर एकाएक गर्जना करने लगा और सांकल तोड़कर भयंकर आवाज करते हुए भागने लगा। हाथी की गर्जना सुनकर अयोध्या-वासी भयभीत हो गये, हाथी तो दौड़ने लगा, राम-लक्ष्मण उसे पकड़ने के लिए उसके पीछे दौड़ने लगे। दौड़ते-दौड़ते वह हाथी सरोवर के किनारे जहाँ भरत थे, वहाँ आया। लोग चिंतित हो गये – हाय ! हाय !! अब क्या होगा ? रानियाँ और प्रजाजन रक्षा के लिए भरत के पास आये। उनकी माँ कैकेयी भी भय से हाहाकार करने लगी।
हाथी दौड़ते-दौड़ते भरत के पास आकर खड़ा हो गया, भरत ने हाथी को देखा और हाथीने भरत को देखा । बस, भरत को देखते ही हाथी एकदम शांत हो गया, और उसे जाति स्मरण ज्ञान हो गया, उससे उसने जाना कि “अरे, हम दोनों मुनि हुए थे और फिर छठवें स्वर्ग में दोनों साथ थे। ..
अरे रे ! पूर्वभव में मैं और भरत साथ में ही थे। परन्तु मैंने भूल की उससे मैं देव से पशु हुआ। अरे ! | इस पशु पर्याय को धिक्कार है !"
भरत को देखते ही हाथी एकदम शांत हो गया और जैसे गुरु के पास शिष्य विनय से खड़ा रहता है, वैसे ही भरत के पास हाथी विनय से खड़ा हो गया। भरत ने प्रेम से उसके माथे पर हाथ रखकर मूक स्वर में कहा – “अरे गजराज ! तुम्हें यह क्या हुआ ? तुम शांत हो !! यह क्रोध तुम्हें शोभा नहीं देता। तुम चैतन्य की शांति को देखो।"