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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-२/३९ । वाघिन का वैराग्य
कीर्तिधर मुनिराज के पास जब सुकौशल पुत्र ने दीक्षा ले ली, तब सुकौशल की माता सहदेवी को बहुत आघात लगा। पिता और पुत्र दोनों मुनि हो गये, इससे तीव्र मोह को लेकर सहदेवी ने उस मुनिधर्म की निंदा की..... धर्मात्माओं का अनादर किया.... और क्रूर परिणाम करके आर्तध्यान करते-करते वह मरी और मरकर वाघिन हुई.....।
अरे, जिसका पति मोक्षगामी, जिसका पुत्र भी मोक्षगामी - ऐसी वह सहदेवी, धर्म और धर्मात्मा के तिरस्कार करने से वाघिन हुई.....। अतः बन्धुओ ! जीवन में कभी धर्म या धर्मात्मा के प्रति अनादर नहीं करना, उनकी निंदा नहीं करना। .
अब वाघिन हुई वह राजमाता, एक जंगल में रहती थी, वह जंगल के जीवों की हिंसा करती और अत्यंत दुःखी रहती....उसे कहीं भी चैन नहीं पड़ती।
एकबार जिस जंगल में वह वाघिन रह रही थी, उस ही जंगल में मुनिराज कीर्तिधर तथा सुकौशल आकर शांति से आत्मा के ध्यान में बैठ गये....। वे वीतरागी शांति का महा-आनंद लेने लगे।
वाघिन ने दोनों को देखा.....देखते ही क्रूर भाव से गर्जना की, और सुकौशल मुनिराज के ऊपर छलांग मारकर उन्हें खाने लगी....।
कीर्तिधर मुनिराज और सुकौशल मुनिराज दोनों तो आत्मा के ध्यान में हैं और वाघिन मुनिराज को खा रही है, वे मुनि आत्मा के ध्यान में ऐसे लीन हो गये कि शरीर का क्या हो रहा है - उसकी ओर उनका लक्ष्य भी नहीं गया। आत्मा का अनुभव करते-करते उस ही समय सुकौशल मुनिराज ने तो केवलज्ञान प्रकट करके मोक्ष प्राप्त किया। तथा कीर्तिधर मुनिराज ध्यान में ही मग्न रहे।