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जैनधर्म की कहानियाँ भाग - २ / ३८
कोई बंधन रोक नहीं सकता; फिर भी, देवी विचित्रमाला के गर्भ में जो बालक है, उसका राजतिलक करके मैं उसको राज्य सौंपता हूँ ।"
• ऐसा कहकर वहीं के वहीं गर्भस्थ
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बालक को अयोध्या का राज्य सौंपकर,
सुकौशल कुमार ने अपने पिता कीर्तिधर मुनिराज के पास जिनदीक्षा ले ली...... पिता के साथ ही पुत्र भी संसार के बंधन तोड़कर मोक्षपथ में चलने लगा। कल का राजकुमार राजवैभव
छोड़कर मोक्षरूपी आत्मवैभव को साधने लगा । क्षणभर पहले का राजकुमार अब मुनि होकर आत्मध्यान से सुशोभित होने लगा ।
धन्य है उनका आत्मज्ञान... धन्य उनका वैराग्य ! राजकुमार सुकौशल के वैराग्य की कहानी पूरी हुई, अब उनकी माता का क्या हुआ, उसे अगली कहानी में पढ़ो !
स्वसंवेद्य पदार्थ हैं
एक अंधेरे कमरे में जीवाभाई बैठा है।
बाहर से काना भाई ने पूछा- अरे, अंदर कौन है ? जीवा भाई कहता है- अंधा है क्या ? दिखता नहीं । तब काना भाई ने फिर पूछा- तुम अंदर हो या नहीं ? जीवा भाई बोला- हाँ, मैं तो हूँ । देखो, चाहे जितने घने अंधेरे में भी मैं हूँ।
इसी प्रकार आत्मा अपने अस्तित्व को जान सकता है। उसे अपने को जानने के लिए अन्य प्रकाश आदि की जरूरत नहीं पड़ती है। इसप्रकार आत्मा स्वयं अपने को जाननेवाला स्वसंवेद्य परम पदार्थ है।