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योगबिंदु
अयोगिनो हि प्रत्यक्षगोचरातीतमप्यलम् ।
विजानात्येतदेवं च, बाधाऽत्रापि न विद्यते ॥५०॥ अर्थ : अयोगी के लिये जो प्रत्यक्ष गोचरातीत-इन्द्रियातीत है; उसे योगी योगबल से एतदेवंहस्तामलकवत् जानता है, अतः यहाँ कोई विरोध नहीं ॥५०॥
विवेचन : जिन्होंने योगाभ्यास नहीं किया; जिनको योग सम्बन्धी सिद्धियों का कोई अनुभव नहीं, ऐसा सामान्य मनुष्य केवल अपने चर्मचक्षुओं से इन्द्रियगोचर पदार्थों को ही जान सकता है। इन्द्रियातीत पदार्थों को जानना उसकी शक्ति के बाहर है, लेकिन योगी तो योगबल से, अपनी दिव्यदृष्टि से, इन्द्रियातीत आत्मा, कर्म, परलोक, मोक्ष आदि पदार्थों को हस्तामलकवत् जानता है । इसलिये आत्मादि विषय में किसी प्रकार का विरोध या रूकावट नहीं है । जब योगीप्रत्यक्ष आत्मादि सिद्ध है, तो योगीप्रत्यक्ष स्वप्न भी सत्य सिद्ध ही है ॥५०॥
आत्माद्यतीन्द्रियं वस्तु, योगिप्रत्यक्षभावतः ।
परोक्षमपि चान्येषां, न हि युक्त्या न युज्यते ॥५१॥ अर्थ : आत्मादि अतीन्द्रिय वस्तु, योगीप्रत्यक्षगम्य होने से, अयोगीजनों के लिये परोक्ष होने पर भी युक्ति सिद्ध नहीं है, ऐसा नहीं है, अर्थात् वे युक्ति सिद्ध है |॥५१॥
विवेचन : जैसा पूर्व में कहा है योगी योगबल से इन्द्रियातीत – इन्द्रियों से जिसे न जाना जा सके, ऐसे आत्मा, कर्म, परलोक, मोक्ष आदि विषयों को हस्तामलकवत् (हाथ में आँवले की भाँति) प्रत्यक्ष कर लेता है । लेकिन जो योगी नहीं, ऐसे सामान्य मनुष्य के लिये तो यह विषय परोक्ष ही रहा, तो इस पर वे कहते है कि यह तथ्य युक्ति से सिद्ध नहीं हो सकता, ऐसा नहीं है, अर्थात् सामान्य मनुष्य के लिये चाहे यह विषय परोक्ष ही हो, लेकिन तर्क, युक्ति और बुद्धि से इस विषय की सिद्धि हो जाती है । टीकाकार ने इस विषय को बहुत अच्छी तरह से स्पष्ट किया है।
अचेतनानि भूतानि, न तद्धर्मो न तत्फलम् । चेतनास्ति च यस्येयं, स एवात्मेति बुध्यताम् ॥ यदीयं भूतधर्म स्यात्प्रत्येकं तेषु सर्वदा । उपलभ्येत, सत्त्वादि, कठिनत्वादयो यथा ॥ काठिन्यादिस्वभावानि, भूतान्यध्यक्षसिद्धितः ।
चेतना तु न तद्रया; सा कथं तत्फलं भवेत् ॥ पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और आकाश ये पंचभूत है। उनका स्वभाव अचेतन-जड़स्वरूप