________________
योगबिंदु
नास्तिकों को, देवतादि की कृपा से, ऐसे अद्भुत स्वप्न नहीं आते। योगी पुरुषों को ही ऐसे सच्चे स्वप्न आते हैं । भूतमात्र को जो स्वप्न आते हैं, वे विकारजन्य है, इसलिये सफल नहीं होते । परन्तु योगियों के स्वप्न शुद्ध सात्त्विक होने से शीघ्र फलदायी होते हैं।
४२
स्वप्नशास्त्र हमारा अनुपम शास्त्र है, उसमें बताया गया है कि कौन से, किस के स्वप्न सत्य और सफल होते हैं । स्वप्न हमारी आत्मा की शुद्धि - अशुद्धि का प्रतिबिम्ब हैं ॥४७॥ प्रलापमात्रं च वचो यदप्रत्यक्षपूर्वकम् ।
यथेहाप्सरसः स्वर्गे मोक्षे चानन्द उत्तमः ॥ ४८ ॥
अर्थ : अप्रत्यक्षपूर्वक वचन प्रलापमात्र है, जैसे स्वर्ग में अप्सरा और मोक्ष में उत्तम आनन्द (ऐसा नास्तिक कहते है ) ॥४८॥
विवेचन : नास्तिक लोग इन्द्रिय गोचर - प्रत्यक्ष पदार्थ को ही सत्य - यथार्थ मानते हैं, जो वस्तु प्रत्यक्ष नहीं उसे वे नहीं मानते। उनका कहना है कि मीमांसकों का यह कथन कि स्वर्ग में मेनका, रम्भा आदि अप्सरायें हैं और जैनों और अद्वैतवादियों का मोक्ष में परम आनन्द का मानना, तो केवल गप्पें हैं; कल्पनामात्र है वास्तविक नहीं, क्योंकि हम अपनी नजरों से उसे देख नहीं सकते॥४८॥
योगिनो यत् समध्यक्षं ततश्चेदुक्तनिश्चयः ।
आत्मादेरपि युक्तोऽयं तत एवेति चिन्त्यताम् ॥४९॥
अर्थ : योगी प्रत्यक्ष से यदि उक्त अप्सरादि स्वर्ग का निश्चय होता हो तो आत्मादि का निश्चय भी उसी प्रकार युक्त है, यह विचारें ॥४९॥
विवेचन : मीमांसकों का मानना है कि योगी योगबल से दिव्यदृष्टि वाले होते हैं । वे अपनी दिव्यदृष्टि से देव, नारकी आदि जगत के सभी पदार्थों को हस्तामलकवत् प्रत्यक्ष देखते हैं । इसलिये योगीप्रत्यक्ष होने से हम स्वर्ग, अप्सरा आदि को मानते हैं, तो उन्हें हम यह कहते हैं कि, जैसे तुम योगी-प्रत्यक्ष होने से स्वर्ग आदि को मानते हो, उसी प्रकार मोक्ष में परम आनन्द है ऐसा पूर्ण ज्ञानी ने अपने ज्ञान में देखा है और ऐसे ज्ञानी के प्रत्यक्ष होने से हम मोक्ष में परम आनन्द को और आत्मा, कर्म, ज्ञान आदि को भी जो इन्द्रियप्रत्यक्ष नहीं, उन पारमार्थिक तत्त्वों को ज्ञानी के प्रत्यक्ष होने से उसे मानते हैं । क्योंकि जैसे योगी योगबल से, देवकृपा से अतीन्द्रिय परभव आदि विषयों को प्रत्यक्ष करते हैं, उसी प्रकार देव की कृपा से धार्मिक व्यक्ति को स्वर्ग आदि का स्वप्न में देखना, उस पर सम्यक् श्रद्धा होना, आत्मादिक 'पदार्थों को श्रद्धा पूर्वक मानना' आदि 'यथार्थ घटित होता है' उसमें कहीं भी सन्देह नहीं ॥४९॥
I