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योगबिंदु विवेचन : योग का महत्त्व बताते हुए, "मोक्षेण योजनात् योगः" योग की इस तात्त्विक व्याख्या को ध्यान में रखकर, योग कितनी उत्तम वस्तु है यह दर्शाते हैं । ग्रंथकर्ता उसका प्रतिपादन करते हुये कहते हैं कि योग कल्पवृक्ष से भी उत्तम है, क्योंकि कल्पवृक्ष तो प्राणी को केवल इन्द्रियजन्य भौतिक सुख का ही लाभ-देता है, जब कि योगरूपी कल्पवृक्ष तो शाश्वत-मोक्षसुख देता है। वह उस पूर्ण आनन्द को देता है, जिसका कभी नाश नहीं हो सकता । योग चिन्तामणिरत्न से भी श्रेष्ठ क्यों है ? क्योंकि चिन्तामणिरत्न तो पत्थररूप है और वह बाह्यसुख जो कालपूर्ण होने पर नष्ट हो जाता है, ऐसे सुख को देता है लेकिन योग तो कभी नष्ट नहीं हो सके ऐसे आन्तरसुख शांति को देता है । सभी धर्मों में योग की प्रधानता इसलिये बताई है कि दान, दया, तप, जप आतापना यज्ञादि धर्मक्रिया बाह्य है, जब कि योग तो अन्तर की वस्तु है । उपर्युक्त धर्मक्रियायें करने पर भी हृदयशुद्धि संशययुक्त है - हो भी सकती है और नहीं भी हो सकती, लेकिन योग तो हृदयशुद्धि का ही है, इसलिये सर्वश्रेष्ठ धर्म है। योग सिद्धियों का आकर्षण करने के लिये लोहचुम्बक है अर्थात् योगी को सिद्धियाँ स्वयं आकर वरण करती हैं, स्वयं मिलती है । सिद्धि को टीकाकार ने मोक्षरूप सिद्धि के अर्थ में ग्रहण किया है, क्योंकि इनका मुख्य हेतु मोक्ष ही है लेकिन इसके अतिरिक्त छोटीबड़ी अन्य सिद्धियाँ भी है यथा:
आमोसहि विप्पोसहि खेलोसहि जल्लमोसहि चैव । संभिन्नसोय उज्जुभर सब्बोसहि चैव बोधव्व ॥१॥ चारण आसीविस केवला य मणनाणी नोव पुव्वधरी ।
अरिहन्त चक्कधरा बलधरा वासुदेवा य ॥२॥ इस गाथा में कही हुई लब्धियाँ चारित्र योग के बल से मिलती है। इसलिये सम्यक ज्ञानयोग, दर्शनयोग और चारित्र योग अत्यन्त आदरणीय है। विशेष रूप से योग से अणिमा, लघिमादि लब्धियाँ भी प्राप्त होती हैं । इन लब्धियों के प्राप्त होने पर आत्मा अगर अप्रमत्त रहे, सावधान रहे, इन लब्धियों के मोह से निर्लिप्त रहे तो उसे मोक्षसिद्धि स्वयं आकर उसके वश में हो जाती है। लेकिन अधिकतर साधक इन फिसलन भरी लब्धियों में ही लुब्ध हो जाते हैं और अपनी जन्म-जन्म की मेहनतपरिश्रम को मिट्टी में मिला देते हैं । जैसा कि उत्तराध्यनसूत्र में बताया है संभूति मुनि ने क्षणिक सुख के लिये वर्षों की साधना को लुटा दिया और स्थूलिभद्रजी ने अपूर्वज्ञान को इनके कारण ही खो दिया। इसीलिये योगियों को सिद्धियों के पीछे भागने की मनाही है। योग का विधान केवल आत्मनिर्मलता, कर्मक्षय और मोक्ष के लिये है न कि लोगों को आकर्षित करने के लिये ॥३७||
तथा च जन्मबीजाग्निर्जरसोऽपि जरा परा । दुःखानां राजयक्ष्माऽयं मृत्योर्मृत्युरुदाहृतः ॥३८॥