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योगबिंदु परम्परा से साथ ही रहने वाला है । मोक्ष पर्यन्त जो साथ रहता है बीच में कभी भी छिन नहीं होता, टूटता नहीं है इसीलिये श्रेष्ठ है, परन्तु दूसरा भेद जो अतात्त्विक बताया है, वह योग मुख्य योग नहीं । लोग-बालजीवों ने चित्त की प्रसन्नता के लिये, उपचार भाव से जिन पदार्थों की कल्पना की हो, उसी के आधार पर वह निर्भर है । अर्थात् जो लौकिक दृष्टि से योग मालुम होता है, परन्तु जो वास्तविक लक्ष्य-मोक्ष से दूर ले जाने वाला है, वह अतात्त्विक योग है। जिस को सुगुरु, सुधर्म, सुदेव पर कोई श्रद्धा नहीं और केवल अपना प्रभाव-चमत्कार बताने के लिये; लौकिक-पारलौकिक सिद्धियों के लिये; संसार में पुण्यात्माओं के वैभव, विलास, सुख-साहिबी को देखकर, ऐसे मार्गों की प्राप्ति के लिये, आतापना लेना, ताप, शीत, डांस, मच्छर आदि परिषहों को सहना, मासखमण आदि लम्बी तपश्चर्या करना, उल्टे मस्तक होकर पेड़ के साथ लटकना, पंचाग्नि तप सहन करता आदि, अज्ञान तप द्वारा-अकामनिर्जरा द्वारा, पुण्यबन्ध करके देवत्व, राज्य तथा अनेक भोग सामग्री प्राप्त करना, ये सब अतात्त्विक योग में आ जाते है। ऐसा योगी-तपस्वी अज्ञानी होता है । संसार से अत्यन्त आसक्ति होने से कर्मबन्धन से मुक्त नहीं होता और विविध योनियों में भटकता रहता है । यथार्थ तत्त्व मोक्ष से वंचित रहता है, इसलिये इस अतात्त्विकयोग को निरनुबन्ध कहा है-टूटने वाला कहा है । यह योग कभी भी टूट सकता है, नष्ट हो सकता है । उत्तराध्ययनसूत्र में संभूति
और चित्रमुनि के दोनों दृष्टान्त तात्त्विक और अतात्त्विक योग के दृष्टान्त हैं । चित्रमुनि स्त्री पर मुग्ध होकर फिसल जाते हैं और योगभ्रष्ट होकर संसार में भटकते हैं और संभूति मुनि मोक्ष में जाते हैं। संक्षेप में जिस साधक की दृष्टि मोक्षाभिमुखी है, उसका योग तात्त्विक है और संसाराभिमुखी दृष्टिवाले साधक का योग अतात्त्विक हैं ॥३३॥
सास्त्रवो दीर्घसंसारस्ततोऽन्योऽनास्त्रवः परः ।
अवस्थाभेदविषयाः संज्ञा एता यथोदिताः ॥३४॥ अर्थ : सास्रवयोग दीर्घसंसार का हेतु है और अनास्रव इससे विपरीत है। ये नाम जो ऊपर कहे हैं, वे अवस्था भेद हैं ॥३४॥
विवेचन : आस्रव-जिससे संसार बढ़े वह आस्रव योग कहा जाता है । आस्रव-योग में मिथ्या वासना होने से पौद्गलिक भोगों की इच्छा तीव्र होती है। धन, स्त्री, कुटुम्ब के लिये हिंसा, चोरी आदि करने की भी इच्छा होती है। वह सम्यक्-दर्शन, ज्ञान और चारित्र से वंचित रहता है। उसका संपूर्ण तप, जप, धार्मिक अनुष्ठान लौकिक भोगों की आसक्ति से युक्त होता है, इसलिये यह योग उसके संसार को बढ़ाने में कारण बनता है । यहाँ योग शब्द औपचारिक है मुख्य नहीं केवल कल्पित है, वास्तविक नहीं ।
दूसरा अनास्रव योग महान् है-श्रेष्ठ है, क्योंकि वह मोक्ष की ओर ले जाता है। संसार का अन्त करने में वह योग कारण बनता है। संसार को अल्प बनाता है। अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य,