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योगबिंदु 'अविकारी' कहा है । ग्रंथकार का आशय यह है कि जो पुरुष आत्मा के उपर अनुग्रह करने वाला माना गया है, अर्थात् जिस पुरुष के वचनानुसार आचरण करने से आत्मा मुक्त हो सकती है, उस पुरुष को भी सभी दर्शनों में समान माना गया है। मात्र शब्दभेद है भाषा, शैली, भिन्न-भिन्न होने पर भी मूल बात में कभी भी भेद नहीं हो सकता । १७ वे श्लोक में भी आचार्यश्री ने यही बताया है। यही उनकी समदर्शिता महानता है । अगर कोई कहे कि "शब्दानामनेकार्थाः" एक शब्द के अनेक अर्थ हो सकते हैं, अभेद कैसे ? ग्रंथकार कहते हैं 'मोक्षेण योजनात् योगः' योग का जो ऐसा स्वरूप बताया है उसमें नाम-भेद बाधक नहीं, क्योंकि साध्य-मोक्ष का अभेद है। नाम, शब्द, भाषा, शैली भिन्न होने पर भी मुख्य तत्त्व में भेद न होने से भेद नहीं आ सकता । पूर्वोक्त व्यवस्था स्वीकार करने से सभी दर्शनों में बताया गया योग यथार्थ घट जाता है। सभी शास्त्रों के निर्माता भिन्न-भिन्न हैं अतः शैली, भाषा एवं अभिव्यक्ति में भिन्नता आना स्वाभाविक है, परन्तु महापुरुषों की भिन्नता में भी, अभिन्नता निहित है ‘एकं सत् विप्रा बहुधा वदन्ति' कथन से वस्तुस्वरूप में भेद नहीं हो जाता ॥१८॥
साकल्यस्यास्य विज्ञेया, परिपाकादिभावतः ।
औचित्याबाधया सम्यग्-योगसिद्धिस्तथा तथा ॥१९॥ अर्थ : इन सब सामग्री का परिपाक आदि जब होता है, तब उचित की बाधा न हो, इस प्रकार अर्थात् उचित रूप से 'सम्यक् प्रकार' से योग की पूर्ण सिद्धि (मुक्ति) को प्राप्त करता है ॥१९॥
विवेचन : जीव, कर्म और जीव के साथ कर्म संयोग तीनों अनादि कालीन हैं । इस भाव की पुष्टि अभ्यास के बल से, शास्त्राभ्यास के बल से, कर्मों के विविध विपाकों के अनुभव से, तथा तद्योग्यकाल परिपक्व होने पर तथाभव्यत्वरूप योग्यता के प्रकट होने पर क्रमशः कर्मों की निर्जरा करते-करते जीव मोक्षमार्ग के योग्य 'उचित प्रवृत्ति' करता है, इस उचित प्रवृत्ति' को जैनधर्म ने 'यथाप्रवृत्तिकरण' नाम दिया है। जब जीव 'यथाप्रवृत्तिकरण' करता है फिर धीरे-धीरे अपूर्वकरण, ग्रंथिभेद, अनिवृत्तिकरण आदि (१४ चौदह) गुणस्थान को पार करता हुआ घाती कर्मों को खपा कर, समयक्-योग मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। आशय यह है कि बद्ध आत्मा का भव्यत्वरूप धर्म जब परिपक्व हो जाता है अर्थात् उस 'परिपाक' की 'प्रक्रिया' को, अन्यदर्शन में अन्य संयोग हास भी कहते हैं । जब अन्य संयोगरूप कर्म का हास-विनाश हो जाता है तब सम्यक्योग की सिद्धि हो जाती है तथा शास्ता के अनुग्रह की प्राप्ति भी हो जाती है और इस प्रकार उचित की बाधा के बिना तथा तथा प्रकार से सम्यक् मोक्ष की सिद्धि बन जाती है ॥१९॥
एकान्ते सति तद्यनस्तथाऽसति च यद् वृथा । तत्तथायोग्यतायां तु, तद्भावेनैष सार्थकः ॥२०॥