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योगबिंदु किरणों से जगत को प्रचण्डताप से तप्त और प्रकाशमान करने वाले प्रचण्डभानु सूर्य को शिव चन्द्रवत शीतल बनाकर जगत में अन्धेरे का प्रसार कर सकते हैं ? अर्थात् सूर्य के स्वभाव को बदल सकते हैं ? जिस प्रकार सूर्य के स्वभाव को वे बदल नहीं सकते उसी प्रकार आत्मा का मुक्त होने का स्वभाव है इससे आत्मा अपने निज के शुद्धिकरण के प्रचण्ड पुरुषार्थ से स्वयं ही सर्वथा शुद्ध हो सकती है। इसलिये किसी के भी अनुग्रह की जरूरत नहीं होती । अर्थात् शिव का अनुग्रह आत्मा के मुक्त होने में मुख्य कारण नहीं बन सकता। वस्तु का जिस प्रकार का स्वभाव होता है उस स्वभाव के अनुसार ही वस्तु की स्थिति बनती है, उसमें किसी परमेश्वर या शिव का भी कुछ नहीं चल सकता । अतः जिस आत्मा का मुक्त होने का ही स्वभाव है, उस स्वभाव के अनुसार पूर्वोक्त प्रक्रिया से आत्मा स्वयं ही मुक्त हो जाती है। अगर जीव या पदार्थ के स्वभाव की योग्यता को न माना जाय तो संसार के पदार्थ-पर्वत, सागर, चन्द्र, सूर्य जल, पृथ्वी आदि छोटे-बड़े पदार्थ मुख्यरूप से जो अपने स्वभाव के अनुसार रह रहे हैं, ऐसा न होकर पृथ्वी जल हो जाय, जल पृथ्वी हो जाय, पर्वत सागर हो जाय और सागर पर्वत हो जाय । परन्तु जब से लोगों ने जगत को देखा है तब से आज तक कभी भी ऐसा हुआ हो, अर्थात् वस्तु का स्वभाव उलट-पलट बना हो, ऐसा किसी का भी अनुभव नहीं है । अर्थात् वस्तु के स्वभाव परिवर्तन में किसी का भी सामर्थ्य नहीं चल सकता - वस्तु मूल अपने स्वभावानुसार ही वर्तन करती रही है। इसमें किसी का भी - शिव का भी अनुग्रह या निग्रह परिवर्तन नहीं ला सकता। जिस आत्मा का मौलिक स्वभाव ही मुक्त होने का है; उस आत्मा को मुक्तदशा पाने के लिये किसी के अनुग्रह की जरूरत नहीं हो सकती और जिस आत्मा का मुक्त होने का स्वभाव ही नहीं है उसको स्वयं शिव भी मुक्त नहीं कर सकते । इस प्रकार "स्वभावः अपरिवर्तनीयः" वे गीता में भी लिखा है :- "न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः । न कर्मफल संयोगं, स्वभावस्तु प्रवर्तते" ||गीता, अ. ५ श्लो. १४॥
"प्रकृति यान्ति भूतानि; निग्रह किं करिष्यति ।" सभी प्राणी अपनी प्रकृति-स्वभावानुसार ही गति प्राप्त करते हैं, इसमें ईश्वर की कोई कृपा काम नहीं आ सकती । "नादते कस्यचित् पापं, न चैव सुकृतं विभुः । अज्ञानेनावृतं ज्ञानं, तेन मुह्यन्ति जन्तवः ॥" गीता, अ. ५ श्लो. १५॥
यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् ।।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भाव भावितः ॥१॥ गीता के आठवें अध्ययन के छठे श्लोक में नारायण श्रीकृष्ण कहते हैं, हे! कौन्तेय, अर्जुन ! प्राणी-जीव मृत्यु के समय जिस-जिस भावरूप लेश्या का स्मरण करते हुए मरते हैं वैसा ही नया जन्म धारण करते हैं । वहां किसी भी ईश्वर की कृपा-प्रसाद काम आता नहीं, कारण जीव का वैसा स्वभाव ही मुख्य कारण है और उपादान कारण है ईश्वर की कृपा और अवकृपा । ईश्वरकृपा को मुख्य उपादान कारण मानने से ईश्वर में दोषापत्ति आती है, ईश्वरकृपा निमित्त कारण हो सकती है