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भावनायोग, ध्यानयोग एवं समतायोग का अभ्यास जब पराकाष्ठा पर पहुँच जाता है तब मन की संपूर्ण चंचल वृत्तियों का नाश हो जाता है वही वस्तुतः वृत्तिसंक्षय: है । इसकी तुलना हम पतंजलि ने की हुई योग की व्याख्या के साथ कर सकते हैं । उन्होंने चित्तवृत्तियों के क्षय को योग कहा है । अंतर केवल इतना ही है कि यहाँ चित्त की तमाम वृत्तियों का क्षय हो जाता है । अर्थात् इस अवस्था में आत्मा की स्थूल और सूक्ष्म सभी प्रकार की वृत्तियों का अन्त हो है I
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योगाभ्यास के लिए आवश्यक गुण :
जनपद
आचार्य हरिभद्रसूरि ने योगाभ्यास के लिए उत्साह, निश्चय, धीरज, सन्तोष, तत्त्वदर्शन और - त्याग इन छः गुणों से योग की सिद्धि मानी है। पतंजलि ने केवल अभ्यास और वैराग्य को ही योगाभ्यास के लिए आवश्यक माना है, किन्तु आचार्य हरिभद्रसूरि कहते हैं
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आगमेनानुमानेन, ध्यानाभ्यासरसेन च ।
विद्या प्रकल्पयन् प्रज्ञां, लभते योगमुत्तमम् ॥ ४१२ ॥
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आगम से अनुमान और ध्यानाभ्यास में रुचि से, इन तीनों के द्वारा उत्तम योग को उपलब्ध होता है । इस प्रकार की साधना करता हुआ वृत्तियों का क्षय करने वाला साधक समाधि को प्राप्त करता है। इसको ही योगदर्शन में संप्रज्ञात योग कहा है और समस्त वृत्तियों के निरोधरूप वृत्तिसंक्षय ही असंप्रज्ञात योग है । यही धर्ममेघ, अमृतात्मा, भवनाशक, शिवोदय, सत्वानन्द, परम समाधि है। अन्त में सिद्धयोगी शिवपद - मोक्ष को एवं सांख्य दर्शन सम्मत सर्वज्ञ सिद्धान्त एवं पुरुष के सिद्धान्त की समालोचना की है। अंत में आत्मतत्त्व की प्राप्ति के लिए तृष्णा एवं अहंकार का नाश आवश्यक माना है । यहाँ आत्मा की नित्यानित्यता के विषय में भी विचार किया गया है । अन्त में सर्व कर्म का क्षय करके आत्मा शिवगति को प्राप्त होता है ।
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अन्त में समापन करते हुए आचार्य श्री कहते हैं कि विद्वानों को कौन-सा सिद्धान्त अपना या-पराया ? अर्थात् विद्वानों के लिए कोई भी मत स्वमत या परमत नहीं है जो युक्तियुक्त है वही ग्राह्य है ।
आचार्यश्री की हार्दिक इच्छा :
योगबिन्दु शास्त्र की समाप्ति में आचार्यश्री कहते है कि योगरूपी अगाध और अथाह समुद्र का अवगाहन करके मन, वचन और काया के शुभ योगों से मैंने जो पुण्य उपार्जित किया है वह समस्त पुण्य इस शास्त्र के अध्येता, आत्मकल्याण इच्छुक सभी साधक रागद्वेष से मुक्त होकर योगरूपी लोचनवाले हो अर्थात् योगरूपी दिव्यदृष्टि उन्हें प्राप्त हो ।
इस प्रकार आचार्य हरिभद्रसूरि ने योग सिद्धान्त को जैनदर्शन के परिप्रेक्ष्य में अनेक शास्त्रों
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