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कर्ता : पूज्य श्री लक्ष्मीविजयजी महाराज 14 संभवजिन ! संभव समता तणो रे, सकळ भविकने जाण प्रभु देखीने द्वेष ज उपजे रे, ते मिथ्यात-अयाण-संभव०(१) विषय विरुप-विपाक ज छंडीये रे, धरीये सहज-सभाव-संभव... पर-परिणति ते सवि दूरे तजे रे, उल्लसे आतम-भाव-संभव०(२) करुणा मैत्री माध्यस्थ मुदिता रे, भावन-वासित सार; चरण-करण-धारा ते आचरे रे, उपशम-रस जलधार - संभव०(३) श्लाधा-निंदा ए दोए सम गणे रे, नहीं मन राग ने रोष; प्रभु-गुण प्रभुताने ते अनुभवे रे, होयें भावनो पोष-संभव० (४) अनुक्रमे केवलनाण भजे भजे रे, सुख-संभव-समुदाय; कीरतिविमल प्रभुने चरणे रहे रे, शिवलच्छी घर थाय - संभव ०(७)
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