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कर्ताः श्री पूज्य मानविजयजी महाराज १५ अजित-जिणेसर! चरणनी सेवा, हेवाये' हुं हळियो कहिये (कदीये) अण-चाख्यो पण अनुभव'-रसनो टाणो मळियो. प्रभुजी! महिर करीने आज, काज हमारां सारो -प्रभुजी०(१) मुकाव्यो पिण हुं नवि मूकुं, चूकुं ए नवि टाणो। भक्तिभाव उठयो जे अंतर, ते किम रहे शरमाणो !-प्रभुजी०(२) लोचन शांतसुधारस-सुभगा , मुख मटकाळु सुप्रसन्न योग-मुद्रानो लटको-चटको, अतिशय तो अतिघन्न-प्रभुजी०(३) पिंड-पदस्थ-रुपस्थे लीनो, चरण-कमळ तुज ग्रहियां, भ्रमरपरे रस-स्वाद चखावो, विरसो कां करो महियां-प्रभुजी०(४) बाळ-काळमां वार अनंती, सामग्रीयें हुं नवि जाग्यो, यौवन-काळे ते रस चाख्यो, तुं समरथ प्रभु! माग्यो-प्रभुजी०(५) तुं अनुभव-रस देवा समरथ, हुं पण अरथी' तेहनो चित्त-वित्त ने पात्र संबंधे, अजर रह्यो हवे केहनो-प्रभुजी०(६) प्रभुनी महिरे ते रस चाख्यो, अंतरंग-सुख पाम्यो; मानविजय वाचक ईम जंपे, हुओ मुज मन"-काम्यो-प्रभुजी०(७)