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कर्ता : श्री पूज्य यशोविजयजी महाराज । 4 शीतल-जिन मोहे प्यारा ! साहिब ! शीतल जिन मोहे प्यारा ।। भुवन विरोचन पंकज-लोचन, जिउके जिउ हमारा-साहिब० ।। १ ।। ज्योतिशुं ज्योत मिलत जब ध्यावें, होवत नहिं तब न्यारा । बांधी मुठी खुले जब माया, मिटे महा भ्रम-भारा-साहिब० ।।२।। तुम न्यारे तब सबही न्यारा, अंतर-कुटुंब उदारा । तुमही नजीक नजीक है सबही ऋद्धि अनंत अपारा-साहिब० ।। ३ ।। विषय लगनकी अगनि बुझावता, तुम गुण अनुभव-धारा । भइ मगनता तुम गुण-रसनी, कुण कंचण | कुण दारा ! साहिब० ।।४।। शीतलता गुण होर करत तुम, चंदन काष्ठ बिचारा । नाम ही तुम ताप हरत है वाकुं घसत घसारा-साहिब ।।७।। करहु कष्ट जन बहुत हमारे, नाम तिहारो आधारा । जस कहे जनम-मरण-भय भागे, तुम नामे भवपारा - साहिब ० ।।६।।
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