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कर्ता : पूज्य श्री आनंदधनजी महाराज 4 चंद्र प्रभु मुख-चंद्र, सखि० ! मुने देखण दे ! उपशम-रसनो कंद, सखि० ! सेवे सुर-नर-वृंद, सखि० । वत-कलि-मल-दुःख, दंद-सखि० ।।१।। सुहुम निगोदे न देखीयो, सखिo-बादल अतिहि विशेष-सखि० । पुढवी-आउ न देखीओ, सखि० तेउ-वाउ न लेश-सखि० ॥२॥ वनस्पति अति-घण दीहा सखि० दीठो नहिय दिदार-सखि० । बि-ति-चउरिंदी जळलिहा, सखि० गतसन्नी पण धार-सखि०..।।३।। सुर-तिरि-नरय निवासमां, सखि० मनुज अनारज साथ-सखि० ! अपजत्ता-प्रतिभासमां सखि० चतुर न चढीयो हाथ०-सखि०..।४।। इम अनेक थल जाणीये, सखि० दरिसण विण जिनदेव-सखि०!
आगमथी मति आणीये, सखि० कीजे निरमल सेव-सखि०.. ।।७।। निर्मल साधु-भगति लही, सखि० योग-अवंचक होय-सखि ! किरिया-अवंचक तिम सही, सखि-फळ-अवंचक जोय-सखि०.. ।।६।। प्रेरक अवसर जिनवरु, सखि० मोहनीय क्षय थाय-सखि० ! कामित-पूरण-सुरतरु, सखि० आनंदघन प्रभु पाय-सखि०..।।७।।