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६८] . . . . श्री प्राचीनस्तनावली
॥ श्री सिद्धचक्रथुई ॥ शुभ भावे वन्दो, सिद्धचक्र सुखकंद जेहना जप तपथी, भाजे भव भव फंद।श्रीपालने मयणा, विधिथी ए तपकीध ॥ नवपदथी पामे, अष्ट सिद्ध नव निद्ध ॥१॥ जिन सिद्ध आचारज, पाठक श्री मुनिराजः ।दर्शन ज्ञान चारित्र, नवमे तप कहेवाय; एक एक पद ध्यांता, जीव तस्या संसार । चौवीस जिन प्रणमुं, कीधो भवि उपकार ॥२॥आसु बली चैत्र मास, सुदि सातमथी जाण । ओली कीजे शुभ मन, आंबिल कर पञ्चक्खाण । पद पदनो गुणणो, कीजे भाव जगीश। आगम मांही बोल्या, ध्यावो तुम निशदीश ॥३॥ विमलादिक देव, देवी चकेसरी माय । सिद्धचक्रना सेवक, आपे वांछित दान ॥ स्वरतरगच्छ दिनकर, श्री जिन अत्रय सूरींद। तस चरण पसाये, भाखे श्री जिनचंद ॥४॥