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श्री प्राचीनस्तवनावली . . . . [६७ निपावेजी । खरतर गच्छ नवनिधिसुपसाये, वाचक चारित्र नंदोजी। देवदेवी जसु शान्ति सिद्धायिका, आपे शिव सुख कंदोजी ॥४॥
- जग जग मन मोहन, पुरुषसिंह निरभिक। गुणमणि रयणकर, पुरुषोत्तम पुंडरीक ॥भविकजन लंकृत, दिनकर कर परकाश । अहनिशि त्रिकरण कर सेवं, चित्त चिंतामणि पास ॥१॥ चउविह सुर नरपति, भक्ति भर इग चित्त। अविचल सुख काजे, सेव परम पवित्त । जे अतीत अनागत, वर्तमान जिनराय, ते नितप्रति प्रणमुं, परमानंद सुखदाय ॥२॥भवजलधि अगाधे, दृढतर प्रवहण जान, रिपुवर्ग विहंडन आपे शिवसुख खान । नयभंग निक्षेप, स्याद्वाद मतसार । शुद्ध पराणति भासे, जिन प्रवचन चित्तधार॥४॥पद्मसम राजे, सरसति रूप उदार । पउमावइ देवी, जिनशासन सुखकार ॥ खरतरगच्छ वाचक नवनिधि उदय कराय। सुखसंपति आपे, चारित्रभणि सुपसाय ॥४॥