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. . ... श्री प्राचीनस्तवनावली पामीजी ॥ २॥ भव भ्रम धर्म समाबन जलधरो, भूमि चेतन शुभ कारीजी। समकित बीजे फूल्यो तरुवर, उत्तर गुण दलसारीजी अनुभव ज्ञानामृत फल उत्तम, भविजन हर्ष वधाईजी ॥ जिनप्रवचन निज रमणे रमतां, चेतनता प्रगटाइजी ॥ ३ ॥ जिनवर आनन पंकज कोशे, विकशित नित्य निवासीजी । अनुपम रूप लावण्य शिरोमणि, सकल कळा सुविलासीजी ॥ सुमति आपे भारती देवी, ज्ञान ध्यान सुख कंदोजी । नव निधि वाचक चारित्र नंदी, पामे परम आनंदोजी ॥ ४॥
॥ पंचमीनी थुई ॥ पुरी पुंडीरकणी समवसरणगत, भाषे श्री जिनरायाजी । सूरसेन नरपति उपदेशे, पंचमी तप बतलायाजी ॥ चउविहार व्रत मुनि मुख करिये, ज्ञान भक्ति वली कीजेजी । एह उपदेशक सीमंधरजिन, पंचमी तिथि प्रणमीजेजी ॥१॥ आश्रव पंच अवरोधन करके, पंच संवर गुण