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श्री प्राचीनस्तवनावली . . . . . [६१ शुचितर तपः शोषित तनुः । लसत् षटत्रिंशत्सूरिगुणगणभृत् श्री गुरुजिन ॥ यशः० ॥७॥ मुदा यः कृत्वा श्री चरमजिन निवाण परिपूत । पापापूर्या व्योम-मुनिखगको देव निलयं । गतो द्वापंचाशदिनमनशनं श्री गुरुजिन ॥ यश० ॥८॥
resotaar ॥ अथ बीजनीथुई ॥ पूर्व विदेह पुखलावइ विजये,श्री पुंडरिकणी नयरीजी। ऋद्धिसिद्धि नवनिधि अनर्गल, निर्जरपुरी सुखकारीजी। कनक कमल सुर निर्मित ऊपर, चरण धरे जिणंदाजी,सीमंधर जिन वीजे दरशण, करता पामे आनंदाजी ॥१॥ पर संयोग अनित्यता जाणी, सुख विभावी निकामिजी । ज्योति रूप निज भाव संभारी,भाव क्षायक अभिरामीजी। जगजन संशयव्यूह निकंदी आपे निजगुणधामीजी। भाव धरी त्रिभुवन जिन नमतां जिन सुख आनन्द