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श्री प्राचीनस्तवनावली
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वर्ण सोये, ॥ १५ ॥ प्रभावती राणी भरिये गुण अनंत । सुरनर नारी मन माहें वसंत । चित्तमाहें वसंत । सा० ॥ १६ ॥ भुजंग लंछन रूपे जगत मोह्यो ए । सा० ॥
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॥ दाल ५ मी ॥
॥ राग वइरागी ॥
कमह कठण तप करत कानन मठ, पंचाग्नि साधे चित वहे अभिमान । कुमति देखाड़ बहु जनको मिथ्यात्व पाडे । तव प्रभु गज चड़ी आएरी उद्यान ॥ ० ॥ १७॥ जलतो भुजंग लीधो, परमेष्टि मंत्र दीधो । धरणिंद कीधो-कृपानिधि शुभ ध्यान ॥ क० ॥ १८ ॥ मिथ्यात्व मारग टाल्यो, कमठको मान गाल्यो । लोक देइ राडी तेरो तपरे
अग्यान ॥ क० ॥ १९ ॥
॥ ढाल ६ ट्ठी ॥ श्रीराग ॥..
लोकान्तिक सुर आया जंपे जयकार | जिणने जणावे दीक्षा तणो अधिकार ॥ लो० ॥