________________
१३८] . . . . श्री प्राचीनस्तक्नावली नाहीं, थथा थिर जगमें कोइ नाहीं। दवा दान देवो जग माही, धधा धर्मसे फरो तुम जीत, फेर नहीं आवणारे॥प्रभु०॥४॥ पपा पुस्तक जी घर लावो, फफा फिर तुम रात जगाओ। बबा बांधो पुन्यसे लाहो, भभाभवसागर तिर जाय फेर नहीं आवणारे ॥ प्रभु० ॥ ५॥ यया यह इच्छा बहु भारी, ररा राखो धर्म विचारी । लला लाभ लेवो सुखकारी, ववा विघ्न टले सुख होय फेर नहीं आवणारे ॥ प्रभु०॥ ६॥ ससा संवत सित्योतर जाणो, दुतिक श्रावण मास वखाणो । वद तेरस वार वृहस्पति जाणो, ससा सेवक छगनको तार फेर नहीं आवणारे ॥ प्रभु०॥७॥ ॥श्री राजुलजीकी बारहमासी ।।
राग-ख्यालकी। नेमिसर बनड़ा, परण पधारो राजुल नारने। ॥टेर ॥ श्रावण महिनो लागीयो स पियु, घटा चढी घनघोर । आभा चमके बिजली सकाइ, दादुर कर रहा सोरजी ॥ नेमि०॥ १॥ भाद्रव