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९८] . . . . श्री प्राचीनस्तवनावली पस्वी रहे ए माता, किम सेसी शितकाल। चौमासामे घर नहीं माता, बैसे पांखड़ा ढार ॥माता० ॥३॥ वन में तो रहेवो एकलोरे धन्ना कुण करे थारी सारथे दुःख कांइ देख्यो नहींरे धन्ना, संजम विखम अपार॥ धन्ना०॥४॥वनमें तोरहेवे मृगला ए माता, कुण करे वांरी सार । चरे फिरे सुखमे रहे माता, दुःख छ न लिगार ॥ माता० ॥५॥ भूख तृषा छे दोहिलीरे धन्ना, नहीं मिले सूझतो आहार। असूजतो मुनि लेवे नहींरे धन्ना, संजम खांडानी धार॥धन्ना०॥६॥भूख तृषा नहीं दोहली ए माता, दोहिलो नरकनो दुःखा सुर वैदना में सही माता, नहीं लियो सुख लिगार॥ माता० ॥ ७॥ पाय अलवाणे चालणारे धन्ना, माथे सहणोरे ताप ! घर घर भिक्षा मांगणीरे धन्ना, एह बड़ो संताप ॥ धन्ना०॥८॥ माथे ताप सह्यो घणो ए माता, अलवाणे कई वार। भव भव में भमतो फिरयो ए माता, नहीं लियोसुख लिगार॥माता०