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श्री प्राचीनस्तवनावली . . . ८७ प्रभु गुण गाइये रे, आणी मन आणंद । धन धन ते दिन जिण दिन भावे भेटिये रे। विहरमान जिणचंद ॥ वीश० ॥४॥ खरतरगच्छ जुगवर जिनसिंह सूरिन्दने रे, शीश धरिये जगीश ॥ श्री जिनराज वचन अनुसारे थुण्यो रे। विहरमान जिनवीश ॥ वीश०॥५॥ ॥श्री देवचन्द्रजी कृत श्री शत्रुजयगिरि स्तवनं ॥
___भरत निज भावसुं ए । ए देशी
शत्रुजय गिरि भेटिये ए, भेटिये कर्म किलेश। नमो गिरिराजने ए॥ मिथ्या दोष निवारवाए, धारवा समकित देश॥नमो० ॥१॥ काल अनादि भवोदधिए, भमता भव समुदाय ॥ न० ॥ ध्यान पात्र सम जाणजोए । एहिज तीरथराय ॥न० ॥२॥ मानव भव पामी करीए, ए तीरथ गुणगेह ॥न०॥ जेणे नवि भेट्या जुगतिए, ते दुःखीया माहे रहे। नमो० ॥३॥ इहां सिद्धापण कोड़ीसुए, गणधर श्री पुंडरीक ॥न०॥ चैत्र शुक्ल पूनम दिनेए, निज