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चतुर्विध साक्षीए, चारित्र लीए उल्लास रे। वि० ७ आगम सकल अवगाही ने, योगवहन पण कीध रे; छोतेर कार्तिक वद पांचमी, पंन्यास पदवी प्रसिद्ध रे। वि० ८ श्री सिद्धगिरिनी छायामां, वो जय जयकार रे; पाठक पदवी पंचासीए, मल्लीनाथ दरबार रे। वि० ६ शुकल एकादशी माघनी, भोयणी तीर्थ मोझार रे; उपाध्याय उमंगथी, कच्छ भणी कर्यो विहार रे । वि० १० ग्रामानुं ग्राम अनुक्रमे, विचरंता गुरुराज रे; राजनगर संघे कियो, सूरीपद महोत्सव शुभ साज रे | वि० ११ नेव्यासी पोष वदी सातमे, सिद्धि सूरीधर राय रे; पट्टधर मेघ सूरीश्वर, वरदहस्ते त्रण पद थाय रे । वि० १२ तपगच्छ गगनां गण दिनमणि, मणि विजयजी महाराय रे; दादा बिरूदे बिराजतां, महिमा अधिक गवाय रे। वि० १३ पद्मविजयजी पद्म सारिखा, जीतविजयजी शिष्य हीर रे; तस शिष्य मुज गुरू शोभता, विजय कनक सूरी धीर रे। वि० १४ ओगणीश सत्ताणुं खंभातमां, महासुदि छठ्ठ रवि योग रे; दिपविजय गुरु गुण थकी, मंगळ वांछित भोग रे; वि० १५
(56) दिवाळीनुं स्तवन दिवाळी दिन प्रभु मोक्षे सिधाव्यां अमे अनंत भव भमीया (२) ओ शासन नो दीवडो. ॥१॥ अंतीम सोल पहोर देशना दीधी, ओक घडी नही खाली अमृतनी भरेली, ओ शासन नो दीवडो० ॥२॥ देवो प्रभुने आवी प्रश्न करे छे, जीवन मेक घडी राखो, छे भस्मग्रह खारो. अ० ॥३॥ देव के तीर्थंकर होय भला भूपती, आयुष्य पळ नही वधशे, के पळ नही घटसे.
० ॥४॥ अंधारी रात वळी पाछली अमासे, वीर प्रभुनुं निर्वाण, गौतमने थइ जाण. ओ० ॥५॥ वीर प्रभु मारा हैयाना हार छे, मुजने मोकल्यो दूर गाम, हुं भूल्यो भान. अ० ॥६॥ प्रीतलडी हती प्रभु आपनी पुराणी, भेटमां केवल ज्ञान, हुं मांगु नही मान. ओ० ॥७॥ तुमे निरागी प्रभु हु छु रागी, हृदयमां ध्यान धरता, त्यां केवल वरंता. ओ० ॥८॥ शासन दीप प्रभु मूकी सोहाया, द्रव्य दीपक प्रगटावे, श्री जिन गुण गावे. अ० ।।६।।
(57) दिवाली- स्तवन सकल सुरासुर सेवित साहिब, अहनिश वीर जिणंद, सुरकंता शची