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अतिशय अह जणावे, प्रभु भक्ति दिल लावे. २ भवनपतिना नवनिकाय, तेहना इन्द्र अढार कहाय, सूत्र सिद्धांते लखाय, ते सहु इन्द्रना जीत गणाय, दान समय लही अवसर पाय, करणी आप कराय; भरतक्षेत्रना नर समुदाय, दान लेवा जस इच्छा थाय, ते लेवा मन धाय. ते सह माणसने इहां लाय, ओ चोथो अतिशय गवाय, दीपविजय कविराय. ३ वाणव्यंतरने व्यंतर जेह, सहु मळी इन्द्र बत्रीस गुणगेह, समकीतदृष्टि जेह, भरतवासी मानवने अह, पाछा निज निज धाम धरेह, अतिशय पंचम अह; ज्योतिषी इन्द्र करणी ओह, विद्याधरने जाण करेह, छट्ठो अतिशय तेह, दीपविजय कविराज सनेह, ओ षट् अतिशय वरसे सदेह, वीर जगतगुरु मेह. ४
(107) सुधर्मा देवलोकनी स्तुति सुधर्मदेवलोक पहेलो जाणो, दोढ राज ऊंचो चित्त आणो, सौधर्मेन्द्र तेहनो राणो, शक्र नामे सिंहासन छाजे, औरावण हाथी तिहां गाजे, दीठे संकट भांजे; सर्व देव माने तस आण, आठ इन्द्राणी गुणनी खाण, वज्र रत्न जमणे पाण, बत्रीश लाख विमाननो स्वामी, ऋषभदेवने नमे शिर नामी, हैये हर्ष बहु पामी. १ चोवीसे जिन नित प्रणमी जे, विहरमानजिन पूजा कीजे, नरभव लाहो लीजे, बार देवलोक ने नव ग्रैवेयक, पांच अनुत्तर तिहां सबलविवेक, तिहां प्रतिमा छे अनेक; भुवन पति व्यंतरमा सार, ज्योतिषी देव न लाभे पार, तेहसुं नेह अपार, मेरु प्रमुखवली पर्वत जेह, तिलिोकमां प्रतिमा गुणगेह, ते वंदु धरी नेह. २ समवसरण सुर करे उदार, योजन अक तणे विस्तार, रचना विविध प्रकार, अढी गाउ ऊंचो ओ मान, फूल पगर सोहे जानु प्रमाण, देव करे गुण गान; मणि हेम रजतमय सोहे, त्रिगडुं देखी त्रिभुवन मोहे, तिहां बेठा पडिबोहे, अणवाग्या वाजा तिहां वाजे, त्रण छत्र शिर उपर छाजे, सेवक जनने निवाजे. ३ चरणकमल नेउरना चाळा, कटी मेखल सोहे अति विशाला, कंठे मोतनकी माला, पुनमचंद सम वदन विराजे, नयन कमलनी उपमा छाजे, नित नित नवल दिवाजे; चक्केसरी शासननी माय, ऋषभदेवना प्रणमे पाय, श्री संघने सुखदाय, श्री विजयप्रभसूश्चरराय, वंदु किर्तिविजय उवज्झाय, कान्ति-विजय गुण गाय. ४