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रोगमृत्युविज्ञाने
मूर्छा तथा तृष्णा युक्त हो, इस प्रकार के विक्षिप्त को छोड़ दे, उसकी चिकित्सा न करे, वह अवश्य ही थोड़े समय में मर जायगा ॥ ६ ॥ ब्रुवतो यस्य रुग्णस्य रुजत्यूर्ध्वमुरो भृशम् । भुक्तमन्नं बहिर्याति स्थितं चापि न जीर्यति ॥ होयते च बलं प्राज्यं तृष्णा चातिविजृम्भते । जायते हृदि शूलं च तं विद्याद् विगतायुषम् ।। ७-८ ।।
जिस रोगी के बोलते हुए उर: स्थल- छाती से अत्यधिक शब्द हो और भोजन किया हुआ अन्न वमन अथवा उद्गार से बाहर आ जाय और यदि बाहर न आये तो पचे नहीं अपच बना रहे तथा वल अत्यन्त घट जाय और प्यास सदा अत्यधिक लगे अर्थात् प्यास बढ़ती जाय और हृदय में शूल उत्पन्न हो, उस रोगी को गतायुष मरणासन्न समझे ॥ ७८ ॥
यस्य हिक्काऽतिगम्भीरा रुधिरं चातिसार्यते ।
तं भिषग् न चिकित्सेत यमराजानुगामिनम् ॥ ९ ॥ जिसको हिक्का हिचकी अत्यन्त गम्भीर बड़े जोर की हो और हिक्का के साथ २ रुधिर भी आ जाय अथवा रुधिर का वमन हो उस रोगी को यमराज का अनुगामी समझ कर उसकी वैद्य चिकित्सा न करे ।। ६ ।।
आध्मानमतिसारश्च यमेतौ व्याधितं नरम् ।
दुर्बलं विशतो रोगौ संदिग्धं तस्य जीवनम् ।। १० ।।
आध्मान - पेट चढ़ा रहे अर्थात् उदर में वायु सदा भरा रहै और अतीसार पतले दस्त आवे ये रोग, अतीसार और उदावर्त जिस मनुष्य का जीवन संदेहा
जायें, उस
दुर्बल मनुष्य को हो स्पद है ।। १० ।।