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चतुर्थोऽध्यायः
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सूखते जाना, नाश का जनक होता है । यही यक्ष्मा है, इसके समय भेद से तीन भेद होते हैं, क्षय १ शोष २ यक्ष्मा ३ । क्षय रोग में ज्वर आता है, और रसासृग्मांस मेदस् अस्थि मज्जादिक सब धातुऐं क्षीण हो जाती हैं और शुक्र दुर्बल-पतला हो जाता है, प्रतिक्षण विषय की इच्छा रहती है यदि आरम्भ में ही वीर्य की रक्षा करके ठीक उपचार किया जाय तो साध्य है, अन्यथा छ मास में शरीरान्त कर देता है। २ शोष, ज्वर युक्त पुरुष के कभी २ वायु कुपित होकर क्रमशः शरीर में शोप और दुर्बलता को उत्पन्न कर देता है यह एक वर्ष में प्राणान्त कर देता है। ३ यक्ष्मा--यह क्रमशः ज्वर के साथ दुर्बलता उत्पन्न करता हुआ एक सहस्र दिनों में रोगी को मार देता है, ये तीनों प्रायः असाध्य हैं परन्तु स्वर्ण के इनजक्सनों से
और योग्य वसन्तमालती के सेवन से कभी २ लाभ हो जाता है, यदि शिरोवेदना पार्श्वतापादि ग्यारहों उपद्रव उत्पन्न हो जाते हैं, तो कथमपि साध्य नहीं रहता है। । ४ ॥
अस्थानजो भवेन्मोहो ध्यानायासौ तथाऽरतिः । उद्वेगो बलहानिश्च मृत्युरुन्मादपूर्वकः ।। ५॥ जिसको अस्थानज-अयुक्त वस्तु में मोह उत्पन्न हो, किसी वस्तु का ध्यान करता रहे और आयास-थकावट सी बनी रहे, अरति-किसी वस्तु में मन नहीं लगे। प्रायः एक स्थान पर नहीं ठहरे । उद्वेग-प्रतिक्षण घबड़ाहट हो और बल की हानि-दुर्बलता जिस उन्माद रोगी की बढ़ जाय वह अवश्य शीघ्र मृत्यु को प्राप्त होता है ॥ ५ ॥
त्रासक्रोधपरिक्रान्तं सकृच्च हसिताननम् ।। बहुमूर्छाषायुक्तं विक्षिप्तं परिवर्जयेत् ॥ ६ ॥
त्रास उद्वेग घबड़ाहट और क्रोध से युक्त हो तथा कभी २ हँसे अथवा कुछ आन्तरिक विचार से मुसकुराहट-युक्त मुख हो, अत्यन्त