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रोगिमृत्युविज्ञाने वैदूर्यमणिवस्निग्धा विशुद्धा चाम्भसी भवेत् । स्थिरा स्निग्धा घना श्लक्ष्णा श्वेता श्यामा च पार्थिवी ।। यदि वैदूर्य मणि के समान स्निग्ध और स्वच्छ छाया हो तो उसे आम्भसी जल सम्बन्धिनी छाया समझे। यदि स्थिर और स्निग्ध स्नेहमयी एवं घन-सघन तथा श्लक्ष्ण-चिकनी, श्वेत अथवा काली छाया हो तो उसे पार्थिवी पृथ्वी-सम्बन्धिनी छाया समझे ॥५४॥
शुभोदयाश्चतस्रः स्युस्त्वासां गा च वायवी । नाशक्लेशकरी प्रोक्ता वायवी त्वशुभोदया ॥५५।। इन पाँच प्रकार की छायाओं में चार प्रकार की छायायें उत्तम भावी फल की सूचिका हैं, अर्थात् यदि १ नाभसी, २ आग्नेयी, ३ आम्भसी, ४ पार्थिवी छाया हो तो शुभ फल होगा, और यदि. वायवी हो तो अशुभ फल होगा, वायवी छाया निन्द्य है । वह वायवी छाया नाश अथवा घोर क्लेश करने वाली है, अथवा कोई अशुभ होनहार की सूचिका है ॥५५।।।
नाच्छायो नाप्रभः कश्चिद् भूलोके तु विलोक्यते । योगेन ता भाविजातं काले सर्व वदन्ति तम् ॥५६॥ इस पृथ्वी मंडल में ऐसा कोई प्राणी नहीं है जिसकी छाया नहीं हो, अर्थात् सभी की सूर्य चन्द्र अग्नि आदि के तेज से प्रतिबिम्बित छाया होती है और प्रभा रहित भी कोई नहीं होता है। किंतु योगप्रभाव से समय पर होनहार सब हालको छायाएँ-विभिन्न प्रकार की छायाएँ कह देती है ॥५६॥ स्वप्नजातमिदमीरितं मया छाययाऽपिखलु योगिसंगतम् । सम्यगेतदवगम्य वैद्यराड् निर्दिशेन्फलमलौकिकं स्फुटम् ।५।। इति श्री महामहोपाध्याय पं० मथुराप्रसादकृते रोगिमृत्युविज्ञाने
स्वप्नच्छाययोर्विचारे तृतीयः परिच्छेदः ।