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तृतीयोऽध्यायः
४१ हीना वाऽप्यधिका छाया द्विधाऽऽयाता विलोक्यते । छिन्ना भिन्नाऽऽकुला यस्य च्छायास्यात्स मृतोपमः॥५०॥ प्रतिबिम्ब रूप छाया अत्यधिक कम, अथवा ज्यादा अथवा कटी हुई दो भाग हो, तो इस प्रकार की अरिष्टबोधिका होती है, और जिस पुरुष की छिन्न-भिन्न अथवा आकुल सी छाया देख पड़े वह मृत के समान बहुत जल्द मरने वाला है।
विशिरा विस्तृता तन्वी प्रतिच्छाया भवेद् यदि । तदा षण्मासमात्रेण जीवन्तं तं स निर्दिशेत् ॥ ५१ ॥ यदि लम्बी अथवा छोटी शिरारहित छाया हो, अर्थात् जिसकी छाया में मस्तक न देख पड़े तो उसे छ महीना मात्र जीने वाला समझे ॥५१॥
पञ्चानामपि खादीनां छायाः पञ्चविधाः स्मृताः। नाभसी विमला स्निग्धा नीला स्यात्सप्रमेव सा ॥५२ ॥
आकाशादिक पाँच द्रव्यों की छाया पाँच प्रकार की होती है। नाभसी-आकाश सम्बन्धिनी छाया-प्रतिबिम्ब, विमल-निर्मल स्वच्छ तथा स्निग्ध-चिकनी, एवं नीले रंग की और प्रभासहित सी प्रतीयमान हो तो उसे नाभसी छाया समझे ॥५२॥
रूक्षाऽरुणा हतज्योतिः कृष्णा वा वायवी मता। . विशुद्धा रक्तदीप्तामा त्वाग्नेयी दर्शनप्रिया । ५३ ॥
रूखी प्रभारहित कुछ लाल वर्ण की अथवा काली यदि छाया हो तो वह वायवी-वायु द्रव्य सम्बन्धिनी छाया होती है । विशुद्ध स्वच्छ किसी प्रकार के संसर्ग रहित, रक्तवर्ण की देदीप्यमान आभायुक्त, अर्थात् लालवर्ण की चमकीली और देखने में प्यारी हो तो वह आग्नेयी छाया होती है ॥५३॥