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तृतीयोऽध्यायः
२६ होनहार को जानकर संतुष्ट भी न हो, तात्पर्य यह है, स्वप्न-सूचक सूचना मात्र देने वाला है किन्तु जनक नहीं है, अतः हर्ष-विषाद निराधार है, वह तो अवश्य ही होगा ॥३॥
दृष्टः श्रुतश्चानुभूतः कल्पितश्चाभिलिप्सितः। दोषजो भाविकश्चैव स्वप्नः सप्तविधो मतः ॥ ४ ॥ यह स्वप्न सात प्रकार का है । १-दृष्ट, देखे हुये पदार्थ का स्वप्न । २-श्रुत सुने हुये वस्तु का। ३-अनुभूत, अनुभव किये हुये पदार्थ का स्वप्न । ४-कल्पित, सोने से पूर्व-निद्रा आने से प्रथम-कल्पना किया हुआ। ५-अभिलिप्सित, अत्यधिक उत्कण्ठा से चाहा हुआ, उसकी प्राप्ति की कल्पना करता हुआ सो जाय, उसी अवस्था में स्वप्न को देखे । ६-दोषज, किसी दोष के कारण स्वप्न । ७-भाविक, संद्भावना के विचार से उत्पन्न । इस प्रकार से सात तरह का स्वप्न होता है ॥ ४॥
पूर्वोक्ता अफला ज्ञयाः पश्चापि भिषजां वरैः। दिवा स्वप्नोऽतिदीर्वश्च बह्वल्पोऽप्यफलो मतः॥५॥ पूर्वोक्त–दृष्ट, श्रुत, अनुभूत, कल्पित, और अभिलिप्सित इन पाँचों प्रकार के स्वप्नों को वैद्य निष्फल समझे, इन स्वप्नों का सद्-असद् किसी प्रकार का फल नहीं होगा, दिन का स्वप्न अथवा बहुत लम्बा स्वप्न, तथा बहुत ही छोटा स्वप्न, ये स्वप्न भी निष्फल होते हैं ॥ ५॥
पूर्वरात्रे च यः स्वप्नो दृष्टः सोऽप्यफलो भवेत् । दृष्ट्वा पुनः स्वपेन्नैव स सद्यः स्यान्महाफलः ॥ ६ ॥ पूर्वरात्रि में देखा हुआ स्वप्न अल्पफल होता है, प्रभात-समय जिस स्वप्न को देखकर सोये नहीं, वह स्वप्न शीघ्र पूर्ण रूप से फल को देता है ॥ ६ ॥