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६२/ शिक्षण प्रक्रिया में सर्वांगपूर्ण परिवर्तन की आवश्यकता फर्नीचर, स्टोव, पुस्तकें कपड़े आदि की मरम्मत करना सीख लेने पर टूटी-फूटी वस्तुओं को भी नई के सदृश्य बनाया जा सकता है। पुरानी फेंककर नई खरीदने में जो पैसा खर्च होता है, उसे बचाया जा सकता है। यह दोनों उद्योग ऐसे हैं जो सामान्य कुशलता से कम पूँजी में कहीं भी चल सकते हैं। इनके द्वारा होने वाली बचत का हिसाब लगाया जाए तो वह छोटे-मोटे गृह उद्योगों के बराबर जा पहुँचती है। साबुन बनाना, मोमबत्ती बनाना, स्याहियाँ बनाना, खिलौने बनाना आदि उद्योग भी ऐसे हैं, जिनमें अधिक पूँजी नहीं खपानी पड़ती, जो माल बनता है उसे निर्माणकर्ता ही सस्ते मोल में खरीद सकते हैं। साथ ही उन कौशलों में प्रवीण भी हो सकते हैं।
यह भी हो सकता है कि जहाँ देहात के लिए उपयोगी उद्योग चलते हों, वहाँ छात्रों को ले जाकर उनके बारे में अधिक से अधिक जानकारी दी जाए। लुहार, बढ़ई, दर्जी, कुम्हार, बुनकर आदि घरेलू उद्योग कर लेते हैं। उन्हें कार्यान्वित होते गाँव-गाँव देखा जा सकता है। उनके बनाने में लगने वाला सामान, उपकरण, औजार, श्रम, काम आदि की जानकारी सहज ही दी जा सकती है। उनसे होने वाली आमदनी का विक्रय के मारकेट का भी विस्तारपूर्वक विवरण दिया जा सकता है। कुछ बड़े कारखाने हों तो जहाँ वे चलते हैं वहाँ छात्रों को ले जाकर, उनका ब्यौरा बताया जा सकता है, ताकि उन्हें यह विदित रहे कि नौकरी ढूँढ़ने का एक विकल्प गृह उद्योगों को अपनाना भी हो सकता है। कृषि, पशुपालन तो देश के प्रमुख उद्योग हैं। उनको परिष्कृत ढंग से करने और अधिक लाभ कमाने का ज्ञान भी अध्यापक छात्रों को जहाँ-तहाँ ले जाकर सरलतापूर्वक करा सकते हैं। मधुमक्खी पालन पर ध्यान दिया जा सके तो वह भी लाभदायक उद्योग है।
कभी कभी छात्रों की छोटी-छोटी मंडलियाँ बनाकर घरेल काम-काज को मिल-जुलकर करने की शिक्षा भी दी जानी चाहिए। भोजन बनाना, कपड़े धोना, सफाई रखना, मकान की पुताई, मरम्मत, सजावट, पुस्तकों की जिल्दें आदि कितने ही कौशल ऐसे हैं, जिन्हें सीखने में जहाँ मनोरंजन होता है, वहाँ मिल-जुलकर कर काम करने
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