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शिक्षण प्रक्रिया में सर्वांगपूर्ण परिवर्तन की आवश्यकता || ४३ | तंत्र खड़ा किया जाए, जो प्रस्तुत आवश्यकता की पूर्ति कर सकने वाले महा मनीषियों का सृजन कर सके। शोधकर्ताओं के लिए आवश्यक सामग्री संसार भर से एकत्रित करके एक स्थान पर उसे जमा कर सके। शोधार्थियों के लिए ऐसा अवलंबन नितांत आवश्यक।
बड़े रूप में जब तक वैसा नहीं बन पड़ता, तब तक हाथ पर हाथ रखकर बैठे नहीं रहा जा सकता। प्रस्तुत साधनों से ही जो कुछ बन पड़ सकता है, वह किया जाना चाहिए। इस दायित्व को सँभालने के लिए अध्यापक समुदाय ही कुछ कर सकने में समर्थ हो सकता है।
शिक्षा के सहारे ही जर्मनी में नाजीवाद का आवेश उभरा था। साम्यवादी देश भी इसी आधार पर नई पीढ़ी को अपने मंतव्यों के प्रति समर्थक बना पाए। बुद्ध काल में विश्वव्यापी धर्म-चक्र-प्रवर्तन की भूमिका निभाने में नालंदा, तक्षशिला विश्वविद्यालय तथा अनेकानेक बिहार, संघाराम अपने प्रयत्नों से समय का कायाकल्प कर सकने में समर्थ रहे। इन दिनों वैसे तंत्र खड़े करने में यदि हर समर्थ क्षेत्र उदास दिखता है तो भी निराशा की कोई बात नहीं मात्र अध्यापक वर्ग ही यदि गहराई से विचार करके प्रयोजन की गंभीरता अनुभव करे और उसकी पूर्ति के लिए निजी पुरुषार्थ के सहारे कटिबद्ध हो चले तो इतने भर से आश्चर्यचकित कर देने वाली सफलता मिल सकती है।
निर्धारित पाठ्यक्रमों में नैतिक शिक्षा को गूंथा जा सकता है, जो पढ़ाया जाता है, उसमें अनेक घटनाक्रम, इतिहास, आख्यान भी रहते हैं। इनमें से जिन्होंने दुष्प्रवृत्तियाँ अपनाई, उन्हें पतन पराभव का मुँह देखना पड़ा और सदाशयता, सच्चरित्रता, परमार्थ परायणता के पक्षधर रहे उन्होंने न केवल आत्म संतोष और सुयश अर्जित किया वरन सांसारिक क्षेत्र में भी कुछ बड़े काम कर सकने, महामानवों की पंक्ति में जा बैठने में समर्थ हुए। जिन्होंने धूर्तता के सहारे प्रगति की, उन्होंने भी आदर्शवादिता का ही व्याघ्र चर्म ओढ़ा। इस प्रकार के संदर्भ हर दिन के कार्यों में न्यूनाधिक संख्या में मिलते रहते हैं। इसमें हलका-फुलका प्रकाश अतिरिक्त रूप में डाला जाता रहे तो