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शिक्षण प्रक्रिया में सर्वांगपूर्ण परिवर्तन की आवश्यकता
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आवश्यकता के अनुरूप बढ़ाया जाता है। व्यक्तियों के पूर्वाग्रह अपने-अपने ढंग के कठोर होते हैं। कई तो इतने दुराग्रही होते हैं कि अपनी अनुपयुक्त स्थिति को ही सही मानते हैं । उसी के समर्थन में अड़े रहते हैं। सुधार - परिवर्तन की बात स्वीकार करना तो दूर, वे उन्हें समझने तक को तैयार नहीं होते। समीक्षा में भर्त्सना की गंध ढूँढ़ते हैं। परामर्शदाता को विद्वेषी एवं अपमान करने वाला मान बैठते हैं।
सुनने-सुनाने भर की बात तो किसी प्रकार निभ जाती है, पर जब उनके अनुरूप स्वभाव, अभ्यास को बदलने का प्रश्न सामने आता है तो वे बिदक जाते हैं। ऐसी परिस्थितियों में शिक्षक क्यां करें ? जिन छात्रों में उत्कृष्टता के समावेश का जो उत्तरदायित्व सिर पर आया है, उसे सही रूप में कर सकने के लिए क्या मार्ग अपनाया जाए ? यह उनकी समझ में भी नहीं आता। ऐसी दशा में वे भी अपने हिस्से की चिह्न पूजा करके दूसरे साथियों की तरह छुटकारा पा लेते हैं। बात जहाँ की तहाँ अड़ी रह जाती है।
अच्छा होता मूर्धन्य विचारकों, समाज-सुधारकों, शिक्षा शास्त्रियों और शासनाध्यक्षों ने इस तथ्य की उच्चस्तरीय सार्थकता समझी होती है उसे प्रशिक्षण के साथ गूँथ देने की योजना बनाई होती । गुरुकुल प्रणाली यदि इन दिनों यथावत अपनायी नहीं जा सकती, तो कम से कम उसका आधार तो समझा गया होता, जिसमें छात्र और अध्यापक के बीच आत्मीयता मिश्रित घनिष्ठता आवश्यक समझी जाती । विद्यार्थियों को उपयुक्त वातावरण दिया जाता था, ताकि सभी साथी सहचरों के क्रिया-कलाप को देखकर भी अनुकरण करने को मन करता रहे, सरलतापूर्वक उपयुक्त स्तर के व्यक्तित्व को ढाले जाने का प्रयोजन पूरा होता रहे। यह प्रक्रिया किन्हीं अंशों में तो अपनायी भी जा सकती है। इस परंपरा को अपनाए जाने की दिशा में न्यूनाधिक कुछ तो प्रयत्न हो सकता है। अपने विद्यालय में उन सिद्धांतों को किसी न किसी रूप में किसी न किसी हद तक कार्यान्वित होने में कुछ तो सफल हुआ ही जा सकता है।