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शिक्षण प्रक्रिया में सर्वांगपूर्ण परिवर्तन की आवश्यकता ३६
समय की महती आवश्यकता और उसकी
___ आपूर्ति
संजीवनी विद्या का, व्यवहारिक जीवन में आदर्शवादिता के सरल समन्वय का कार्य क्षेत्र अत्यंत ही विशद् है। इस प्रयास को कथा-पुराणों के आधार पर समझाने का प्रयत्न धर्मोपदेशकों के द्वारा किया जाता रहा है, किंतु वह प्रयत्न अतिवादिता से, अव्यवहारिकता से भरा होता है। कहने-सुनने में भले ही अच्छा लगता हो, उससे कुछ काम भले ही चलता हो, पर ऐसा नहीं कि कोई मध्यवृत्ति एवं औसत परिस्थितियों के लोग उन्हें काम में ला सके। पथ प्रदर्शन में सामयिक समस्याओं और परिस्थितियों पर ध्यान देना होता है। पुरातन काल में परिस्थितियाँ भी दूसरी थीं और कठिनाइयाँ, समस्याएँ भी दूसरी। दृष्टिकोण उन दिनों अपने ढंग का था। इसलिए जो समाधान धर्मोपदेशकों द्वारा सुझाए जाते हैं, वे आदर्शों की दृष्टि से सराहनीय होने पर भी व्यावहारिकता के साथ जुड़ सकने जैसे नहीं होते। फिर उनमें बिखराव भी बहुत है। एक प्रसंग को एक तारतम्य में तर्क, तथ्य प्रमाण और उदाहरण के आधार पर समझा देना आज की बौद्धिकता में अनुकुल पडता है। जो बात कही जाए उसका आदि से अंत तक निर्वाह हो, तभी किसी तथ्य का समझना-समझाना लाभप्रद होता है। अनेक विषयों का विहंगावलोकन करते हुए कुछ बातों का उल्लेख करना और फिर उन्हें अधूरी छोड़कर किसी अन्य विषय पर भी इसी स्तर की चर्चा करने लगना एक-एक कौतुक-कौतूहल जैसा हो जाता है। अब तक के प्रवक्ता अत्यधिक गंभीर, महत्त्वपूर्ण एवं आवश्यक जीवन कला को जिस-तिस रूप में इसी प्रकार व्यक्त करते रहे हैं। इसका निष्कर्ष देखते हुए यही कहा जा सकता है कि हवाई उड़ानें उड़ाई जाती रही हैं। विषय के हर पक्ष पर गहरा और सुविस्तृत प्रकाश डालने वाले प्रयत्न कम ही हुए