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|३०|| शिक्षण. प्रक्रिया में सर्वांगपूर्ण परिवर्तन की आवश्यकता प्रधान मंत्री गौण रूप से ही रहे। ब्रह्मर्षि विश्वामित्र के संदीपन ऋषि के गुरुकुल ऐसे थे, जिनमें पढ़कर राम और कृष्ण भगवान रूप में प्रख्यात हुए। गोपाल कृष्ण गोखले राजनैतिक क्षेत्र में बहुत कुछ करते हुए भी मूलतः शिक्षा-सवंर्धन के लिए समर्पित रूप से जुटे रहे।
आवश्यक नहीं कि सभी अध्यापक उपरोक्त उदाहरणों का अनुगमन करें, उतने ही बड़े कदम उठाएँ, पर यह तो हो ही सकता है कि वे वेतन की शर्तों के साथ जुड़ी हुई निर्धारित प्रक्रिया को ज्यों का त्यों करके पूरा न करते रहे, वरन् अपने सांस्कृतिक गौरव को भी समझें। अपने विशेष सम्मान भरे पद के अनुरूप विशिष्ट उत्तरदायित्वों को समझें और उन्हें पूरा करने के लिए अतिरिक्त रूप से भी कुछ न कुछ करते रहें।
अध्यापक वर्ग में से जिनके भी अंतःकरण में यह प्रेरणा उभरे कि उन्हें सौंपे हुए छात्रों के व्यक्तित्व निखारने और भविष्य उज्ज्वल बनाने हैं तो उन्हें उसके प्रति अभिभावक स्तर की ममता उभारनी पड़ेगी, पढ़ाने की चिह्न पूजा तक सीमित न रहकर, उन्हें स्नेहासिक्त आत्मीयता के बंधनों में बाँधना पड़ेगा। जहाँ ऐसी स्थापना होगी वहाँ छात्र भी उनके प्रति सघन श्रद्धा व्यक्त करने में पीछे न रहेंगे। अनुशासन तोड़ने की शिकायत उत्पन्न न होने देंगे। छात्रों की उच्छृखलता के अनेक कारणों में से यह भी एक है कि उन्हें संरक्षकों से आवश्यक दुलार, प्रोत्साहन, मार्गदर्शन नहीं मिलता। कोरे उपदेश एक कान से सुन जाते हैं और दूसरे कान से बाहर निकाल दिए जाते हैं। भावना ही हृदय के मर्म स्थल तक पहुँचती हैं। यदि संबद्ध छात्रों को अध्यापकगण आत्मीयता की जंजीर में जकड़े रहें तो वे भी रस्सी तुड़ाकर भागने और मनमानी करने की धृष्टता धारण न करेंगे। इस तथ्य की यथार्थता को कोई कहीं भी, कभी भी जाँच सकता है।
___ इस आधार को अपनाने पर स्वभाव में कुछ प्रारंभिक परिवर्तन करने होते हैं। उनमें से एक यह है कि सदा सौम्य स्वर अपनाया जाए। जो भी कहा जाए शांतिपूर्वक मधुर स्वर से कहा जाए। मुद्रा हँसती-मुस्कराती रखी जाए। अन्यान्यों की तरह छात्रों को भी सम्मान