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शिक्षण प्रक्रिया में सर्वागपूर्ण परिवर्तन की आवश्यकता || २६] कालेजों तक की श्रृंखला खड़ी करने में सफल हुए दोनों ही सज्जनों को जनता ने सिर नेत्रों पर बिठाया। हीरालाल शास्त्री राजस्थान के मुख्यमंत्री रहे और स्वामी केशवानंद लंबे समय तक केंद्रीय लोकसभा के सदस्य रहे। उत्तर प्रदेश राठ-हमीरपुर में ब्रह्मानंद विद्यालय प्रसिद्ध है। आगरा जिले में बाबा दूधाधारी द्वारा स्थापित कालेज का इतिहास भी इसी प्रकार का है। अलीगढ़ जिले के सासनी गाँव में लक्ष्मी देवी ने अपने बलबूते जंगली, झाड़-झंखाड़ों को काटकर कन्या गुरुकुल खड़ा किया। ऐसे असंख्य उदाहरण हैं, जिनमें जीवट वाले व्यक्तियों ने न केवल स्वयं अध्ययन कार्य किया वरन अध्यापक साधनों को भी जुटाया।
बात जीवट की चल रही है। यदि उसका अस्तित्व मौजूद हो तो साधन भी जुटाए जा सकते हैं और छात्रों के व्यक्तित्व अध्यापकों के ढाँचे में ढल सकते हैं। इस संदर्भ में स्वामी श्रद्धानंद का उल्लेख विशेष रूप से करना पड़ता है। उन्होंने ने केवल अपना घर बेचकर छप्पर के नीचे दस विद्यार्थियों को लेकर विद्यालय चलाया वरन छात्रों को लोक सेवी बनाने की दिशा में भी बहुत कुछ कर दिखाया। उस विद्यालय के आरंभिक छात्रों में से अधिकांश ऐसे रहे जिन्होंने देश का गौरव बढ़ाने वाले एक से एक बढ़कर काम किए। विनोबा के पवनार आश्रम ने भी अनेक सर्वोदयी कार्यकर्ता राष्ट्र को प्रदान किए। मथुरा का चंपा अग्रवाल कालेजों का भी ऐसा ही इतिहास है, जो प्राथमिकशाला से बढ़ते-बढ़ते डिग्री कालेज तक पहुँचा। इसकी प्रगति के पीछे मास्टर जगदीश प्रसाद की लगन ही महती भूमिका आदि से अंत तक निभाती रही। महर्षि कर्वे का महिला विद्यालय प्रसिद्ध है। प्रयाग महिला विद्यापीठ भी अपने संस्थापकों की यश गाथा गाती रहेगी, इन उदाहरणों के माध्यम से कहा इतना भर जा रहा है कि जीवट वाले अध्यापक विद्यालय की आवश्यक साधन सामग्री ही नहीं जुटा लेते वरन् छात्रों को भी कुछ से कुछ बता देते हैं। अरस्तू, सुकरात, कन्फ्यूसियस ऐसे ही प्रतापी अध्यापक थे। सुदामा के गुरुकुल की आर्थिक कठिनाइयों का समाधान करने के लिए कृष्ण ने अपनी द्वारिका वाली समूची संपदा सुदामा पुरी में स्थानांतरित कर दी थी। चाणक्य मूलतः अध्यापक ही थे, शासन के