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शिक्षण प्रक्रिया में सर्वांगपूर्ण परिवर्तन की आवश्यक
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उदाहरणों को देखकर अन्यान्य लोग भी अपने बच्चे को बड़ी उत्कंठा से गुरुकुलों में भर्ती कराते थे। जिन्हें प्रवेश का अवसर मिल जाता था वे अपना भाग्योदय हुआ अनुभव करते थे।
गुरुकुलों में पढ़ाई के लिए पाठ्य-पुस्तकें थोड़ी ही होती थीं। उन दिनों प्रेस नहीं थे। कागज भी कम मिलता था। इसलिए हाथ से ही पोथियाँ तैयार की जाती थीं। उनमें सूत्र - संकेत भरे रहते थे, ताकि उनके सहारे पढ़ाए गए विषय की स्मृति उभरती रहे । शिक्षा मानसिक और व्यावहारिक होती थी। अधिक समय तो व्यवहार कुशलता उभारने और उसके साथ ही आदर्शवादिता, शालीनता आदि का अभ्यास कराने का उपक्रम चलता था । अध्यापकगण इसी पक्ष को पूरा करने में अपनी अधिकांश शक्ति नियोजित करते थे। उन दिनों परीक्षा और सफलता की ? जाँच-पड़ताल इसी आधार पर होती थीं कि किसने मानवी गरिमा के अनुरूप प्रतिभा उभारने में किस सीमा तक प्रगति की ? छात्र, अभिभावक, अध्यापक सभी शिक्षा की सार्थकता को इसी कसौटी पर कसते थे।
यही सब कारण थे जिससे उन दिनों गुरुकुलों से निकलने वाले छात्र नर-रत्न कहे जाते थे। वे अपनी चरित्रनिष्ठा, प्रतिभा और लोकसेवी प्रवृत्ति में इतने खरे पाए जाते थे, कि सर्वसाधारण द्वारा उन्हें सतत सम्मान और सहयोग प्राप्त होता रहे। ऐसे ही सुशिक्षित छात्रों का जिन दिनों बाहुल्य था, उन दिनों यह देश, ३३ करोड़ जनसंख्या वाला वृहत्तर भारत तैतीस कोटि देवताओं का निवास माना जाता था। इसलिए उन नर-रत्नों की जन्मभूमि को "स्वर्गादपि गरीयसी" होने का, विश्वश्रद्धा से सिंचित होने का गौरव मिलता था ।
प्राचीन कालीन सतयुग और कुछ नहीं गुरुकुल प्रणाली की शिक्षा पद्धति का चमत्कार था । सर्वजनीन बहुमुखी पुनरुत्थान के लिए हमें उसी विद्या, उसी परिपाटी से प्रेरणा लेनी होगी। समय के साथ परिस्थितियाँ भी बदल गई हैं। इसलिए ठीक प्राचीनकाल जैसी विधि-व्यवस्था तो नहीं अपनाई जा सकती, पूरी तरह से उसी की प्रतिमूर्ति खड़ी करना संभव नहीं है, परंतु इतना तो हो ही सकता है कि उस पद्धति का स्वरूप एवं अनुशासन गंभीरतापूर्वक समझा जाए