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गंगा नदी का उद्गम स्थल हिमालय है और यह सैकड़ों मील पृथ्वी पर बहकर समुद्र में लीन हो जाती है। गंगा का उद्गम स्थल बहुत छोटा है और समुद्र में मिलन का स्थल भी छोटा ही है। उद्गम स्थल और समुद्र में विलय-स्थल के बीच उसका प्रवाह होता है। प्रवाह में बहती हुई गंगा नदी प्रतिक्षण समुद्र की ओर आगे बढ़ रही होती है। बस ! इसी प्रकार जन्म और मृत्यु के दो किनारों के बीच हमारी जीवन-यात्रा बह रही होती है और उस जीवन-यात्रा के प्रत्येक पल द्वारा हम मृत्यु की ओर/मृत्यु की दिशा की ओर ही बढ़ रहे होते हैं।
इससे स्पष्ट है कि मृत्यु तो हमारे लिए निश्चित ही है । अपने जीवन द्वारा व्यक्ति जिन-जिन वस्तुओं और व्यक्तियों से सम्बन्ध जोड़ता है, उनके प्रति ममत्व को धारण करता है । परन्तु मृत्यु उन सम्बन्धों को तत्क्षण तोड़ देती है। जिस प्रकार कैची वस्त्र के दो टुकड़े कर देती है, उसी प्रकार मृत्यु अपने स्वामित्व-सम्बन्ध को तत्क्षण तोड़ देती है।
सम्बन्ध का टूटना अलग बात है और ममत्व का त्याग अलग बात है। दुनिया से सम्बन्ध तोड़ने के बावजूद भी यदि दिल से ममता का त्याग/विसर्जन न हो तो उस ममत्व के कारण सतत कर्मबन्ध चालू ही रहता है।
कर्म-सिद्धान्त अत्यन्त सूक्ष्म है। वस्तु के सद्भाव और अभाव मात्र से कर्म-बंध के सद्भाव और प्रभाव का कोई नियम नहीं है।
इसीलिए तो परिग्रह की व्याख्या करते हुए भगवान महावीर प्रभु ने कहा है- 'मूर्छा परिग्रहः'। जहाँ मूर्छा है, वहाँ परिग्रह
मृत्यु की मंगल यात्रा-48