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यूं तो जीने के लिए लोग जिया करते हैं , लाभ जीवन का नहीं, फिर भी जिया करते हैं। मृत्यु से पहले मरते हैं हजारों लेकिन , जिन्दगी उनकी है, जो मर-मरकर जिया करते हैं । मुमुक्षु दीपक ! तुझे याद है न ? हम प्रतिदिन 'लोगस्स सूत्र' (नाम-स्तव) के द्वारा परमात्मा से 'समाहि वरमुत्तमं दितु' 'श्रेष्ठ समाधि प्रदान करो' की प्रार्थना करते हैं..."और पुनः प्रार्थना-सूत्र (जय वीयराय मूत्र) के द्वारा 'समाहिमरणं च' कहकर 'समाधि-मृत्यु' की प्रार्थना करते हैं। _____ शायद तेरे दिल में प्रश्न खड़ा हो सकता है—'एक ओर जैनागमों में मृत्यु की इच्छा को पाप माना गया है और दूसरी ओर परमात्मा से मृत्यु' की प्रार्थना की गई है, ऐसा क्यों ?
महापुरुषों ने तुम्हारी इस शंका का समाधान इस प्रकार किया है। 'दुःख और दर्द भरी अवस्था में मृत्यु की इच्छा करना पाप है। इस प्रकार मृत्यु की इच्छा से सल्लेखना-व्रत में अतिचार लगता है। ___अनुकूलता में जीने की इच्छा, प्रतिकूलता में मृत्यु की इच्छा दोनों पाप है. परन्तु 'लोगस्स-सूत्र' और 'जय वीयराय' सूत्र में मृत्यु की प्रार्थना नहीं की गई है. वहाँ तो मात्र पाने वाली मृत्यु में 'समाधि' की ही प्रार्थना की गई है।
जो जन्म लेता है, उसकी मृत्यु अवश्यंभावी है। जो जन्मा है, हजारों उपायों के द्वारा भी उसे मृत्यु से बचाया नहीं जा सकता है। जो जन्मा है, उसके ललाट में मृत्यु की सजा अंकित है।
मृत्यु की मंगल यात्रा-47