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प्रास्मा स्वयं सुखमय है। सुख की प्राप्ति के लिए कहीं दौड़ लगाने की जरूरत नहीं है""वह तो प्रात्मा से ही प्राप्त हो सकेगा।
पूज्य महोपाध्याय यशोविजयजी म. 'ज्ञानसार' में फरमाते
निधि स्वसन्निधावेव स्थिरता दर्शयिष्यसि ।
हे वत्स ! चंचल मन वाला बनकर तू क्यों इधर-उधर भटककर खेद पा रहा है ? तू अपने स्वरूप में स्थिर बन । सुख का खजाना तेरे पास ही है स्थैर्य के बाद ही वह खजाना हाथ लग सकेगा।
हे आत्मन् ! तू स्वयं चिदानन्द स्वरूप है। बाह्य पौद्गलिक परभाव का त्याग कर और निज चिदानन्द स्वरूप में मस्त बन ।
शुद्धात्म स्वरूप के चिन्तन से आत्मा निराशावाद के जाल/ जंजाल से मुक्त बनती है और निर्भय बनती है।
'प्रशरण-भावना' के अन्तर्गत सर्वप्रथम गेयाष्टक में संसार में आत्मा की अशरणता का वर्णन किया गया है । दुनिया में ऐसा कोई जीवन नहीं है... ऐसी कोई जगह नहीं है, ऐसा कोई पद/स्थान नहीं है, जिसे प्राप्त करने के बाद आत्मा सदा के लिए निर्भय निश्चिन्त बन जाय ।
धन, यौवन, पुत्र, परिवार, राज्य, समृद्धि, पद तथा प्रतिष्ठा आदि कोई भी आत्मा के लिए शरण्य नहीं है इस प्रकार
मृत्यु की मंगल यात्रा-9