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'प्रशरणता' का विस्तृत वर्णन करने के बाद अन्त में शरण्य शरणदाता का परिचय देते हुए कहते हैं
शरणमेकमनुसर चतुरङ्गम्, परिहर ममतासङ्गम् ।
इस विश्व में आत्मा के लिए एक मात्र शरण्य चार अंग (दान, शील, तप और भाव) वाले धर्म की शरणागति का स्वीकार कर और बाह्य भौतिक पदार्थों की ममता का त्याग कर । 'संसार-भावना' के अन्तर्गत संसार की प्रतिदारुणता/विषमता का सविस्तृत वर्णन करने के बाद महोपाध्यायजी म. फरमाते हैं कि
सकलसंसारभयभेदकम्,
जिनवचो मनसि निबधान रे। इस दारुण और विषम संसार के समस्त भयों से मुक्त बनाने वाले 'जिनवचन' को मन में धारण कर ।
जिनेश्वरदेव के वचन मोह के पर्वत को भेदने में वज्रतुल्य हैं । पर्वत को भेदने का सामर्थ्य वज्र में ही है।
संसार की भयानकता/भयंकरता का वर्णन करने के बाद महोपाध्यायजी म. उस संसार को भेदने/नष्ट करने का उपाय भी साथ में ही बतला रहे हैं।
जिन-वचन में वह ताकत है. शक्ति है । जिन-वचन के पालन से आत्मा कर्म के भार से मुक्त बनती है""संसार के भय से रहित बनती है।
'एकत्व-भावना' के अन्तर्गत पू. महोपाध्यायजी म. फरमाते
मृत्यु की मंगल यात्रा-10