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________________ देव बनती है तो कभी मनुष्य । कभी पशु का जन्म धारण करती है तो कभी पक्षी का, कभी नरक में जाती है तो कभी निगोद में । कभी पुरुष के रूप में जन्म धारण करती है, कभी स्त्री के रूप में, तो कभी नपुसक के रूप में, कभी राजा बनती है तो कभी रंक । कभी अत्यन्त शक्तिशाली के रूप में जन्म लेती है तो कभी अत्यन्त कमजोर प्राणी के रूप में ।। संसार उसी का नाम है जहाँ आत्माएँ एक गति से दूसरी गति में संसरण- गमन करती रहती हैं । मुमुक्षु 'दीपक' ! तुम ही विचार करो, ऐसा भंयकर संसार किसे रुचे ? संसार के भयंकर और विषम स्वरूप को जानने के बाद भी जिसे संसार के प्रति रुचि पैदा हो संसार व संसार के तुच्छ सुखों के प्रति आकर्षण पैदा होता हो, उसे 'भवाभिनन्दी' समझना चाहिये । ऐसे भवाभिनन्दी जीवों को मोक्ष के प्रति कोई रुचि नहीं होती है। भवाभिनन्दी जीवों में क्षुद्रता, लोभ, रति, दीनता, मत्सरता, भय, शठता तथा अज्ञानता आदि पाठ दोष होते हैं। ऐसी भवाभिनन्दी आत्माएँ भव-चक्र में सतत परिभ्रमण करती रहती हैं। जिसके दिल में संसार के प्रति विरक्ति का भाव होता है और जिसके दिल में एक मात्र मुक्ति-सुख की ही तीव्र प्रभिलाषा हो, उसे मोक्षाभिनन्दी कहते हैं। परमात्मा की असीम कृपा से तुम्हारी अन्तरात्मा में भी संसार के प्रति विरक्ति और मोक्षाभिलाषा प्रगट हो, यही एक शुभेच्छा है। -रत्नसेनविजय मृत्यु की मंगल यात्रा-134
SR No.032173
Book TitleMrutyu Ki Mangal Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasenvijay
PublisherSwadhyay Sangh
Publication Year1988
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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