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जरा और मरण के तेज प्रवाह में बहते हुए जीव को एक मात्र धर्म ही द्वीप, प्रतिष्ठा, गति और उत्तम शरण है।
प्रिय मुमुक्षु 'दीपक' !
धर्मलाभ । परमात्म-कृपा से प्रानन्द है।
हमारी विहार-यात्रा व संयम-यात्रा सानन्द चल रही है। तुम्हारा पत्र मिला। तुम अपनी शारीरिक अस्वस्थता में भी मन को प्रार्तध्यान से बचाने के लिए और मन को शुभध्यान में जोड़ने के लिए 'शान्त सुधारस' ग्रंथ का स्वाध्याय करते हो, जानकर मुझे अत्यन्त प्रसन्नता हुई ।
पूर्वकृत दुष्कर्म के उदय से जीवन में दुःख की प्राप्ति होती है। सुख-दुःख की प्राप्ति हमारे वश की बात नहीं है, वह तो कर्माधीन है, परन्तु उस सुख-दुःख में समाधि भाव बनाए रखना हमारे हाथ की बात है। ____ 'सुख में लीन नहीं बनना और दुःख में दीन नहीं बनना' यही समाधि का मूल मंत्र है। संसार में सुख-दुःख दोनों कर्मकृत
मृत्यु की मंगल यात्रा-135