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• प्रत्येक पदार्थ उत्पाद-व्यय और ध्रौव्यात्मक स्वरूप वाला है। प्रति समय वस्तु की पूर्व पर्याय का विच्छेद होता जा रहा है और नवीन पर्याय की उत्पत्ति होती जा रही है।
बिल्डिंग के निर्माण के साथ ही उसका धराशायी होना प्रारम्भ हो जाता है परन्तु प्रायः वह 'ध्वंस' चर्म चक्षुत्रों से खयाल में नहीं पाता है । वह 'ध्वंस' इतना सूक्ष्म और गतिशील है कि हम उसके अन्तर को पकड़ नहीं पाते हैं ।
बिजली का प्रवाह भी क्रमिक होता है, परन्तु वह प्रवाह तीव्र गति से होने के कारण हमें ऐसा ही लगता है मानों हजारों बल्ब एक साथ ही जले हों। हजार बल्ब तक विद्युत् एक ही समय में नहीं पहुँची है, विद्युत् का प्रवाह क्रमिक ही हुआ है, परन्तु उसकी तीव्रगति के कारण हमें यह भ्रम हो जाता है कि ये बल्ब एक साथ जले हैं।
प्रत्येक पदार्थ प्रति समय क्षीण होता जाता है... परन्तु उस पर्याय-परिवर्तन की गति अत्यन्त तीव्र होने से हम उसे पकड़ नहीं पाते हैं।
__अपनी काया प्रतिसमय जर्जरित हो रही है। उसका सौन्दर्य प्रतिसमय लूटा जा रहा है, परन्तु अफसोस ! अज्ञानता और मोह के कारण नश्वरस्वभावी काया हमें स्थिर दिखाई देती है उसकी किसी पर्याय विशेष को देखकर हम उस पर मोहित हो जाते हैं और उस पर राग कर बैठते हैं। • याद करें---गजसुकुमाल महामुनि को। श्वसुर ने उनके सिर पर जलते हुए अंगारे डाल दिये थे फिर भी वे हिले नहीं,
मृत्यु की मंगल यात्रा-114