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इस पत्र में आज उस महान् ग्रन्थ को ५वीं गाथा को स्पष्ट करने का प्रयत्न करूंगा।
ग्रन्थकार महर्षि फरमाते हैंमा सुयह जग्गियव्वे ,
पलाइयव्वंमि कीस वीसमह ? तिणि जणा अणुलग्गा ,
रोगो अ जरा अ मच्च अ॥५॥ .. अर्थ-जाग्रत रहने योग्य धर्म-कर्म के विषय में सोनो मत । नष्ट होने वाले इस संसार में किसका विश्वास करोगे ? रोग, जरा और मृत्यु ये तीन तो तुम्हारे पीछे ही लगे हुए हैं ।
प्रिय मुमुक्षु !
यह जीवन सोने के लिए नहीं है"प्रमाद के लिए नहीं है।
अव्यवहार राशि में अनन्तकाल सोने में प्रमाद में गया है। व्यवहार राशि में भी बादर एकेन्द्रिय तथा बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चउइन्द्रिय आदि में असंख्य वर्ष प्रमाद में गए हैं। पंचेन्द्रिय अवस्था में भी अधिकांश काल मोह की नींद में ही गया है।
देवलोक में सुख की बहुलता होने से आत्मा प्रायः रागाधीन बनती है. नरक में दुःख की बहुलता होने से आत्मा प्रायः द्वषाधीन बनती है; तिर्यंच में भूख की बहुलता, अज्ञानता और पराधीनता के कारण सन्मार्ग-बोध की सम्भावना कम ही रहती है। जो आत्मा मोहाधीन है, वह जागते हुए भी सोई
मृत्यु की मंगल यात्रा-95