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सरीश्वरजी म. ने ज्ञान के तीन भेद बतलाए हैं -- ( १ ) श्रुतज्ञान (२) चिन्ताज्ञान और ( ३ ) भावनाज्ञान |
किसी भी सूत्र / ग्रन्थ को याद करना कण्ठस्थ करना, श्रुतज्ञान कहलाता है ।
'याद किए गए सूत्र के अर्थ का चिन्तन-मनन करना, 'चिन्ताज्ञान' कहलाता है और उस सूत्र के पदार्थों को जीवन में आत्मसात् करना, 'भावनाज्ञान' कहलाता है ।
श्रुतज्ञान जलस्वरूप है, जो अल्प समय के लिए तृषा को शान्त कर तृप्ति प्रदान करता है ।
चिन्ताज्ञान दूध स्वरूप है, जो कुछ अधिक समय के लिए तृषा को शान्त करता है और तृप्ति प्रदान करता है ।
भावनाज्ञान अमृत स्वरूप है, जो दीर्घकाल तक तृषा को शान्त करता है और आत्मा को तृप्त करता है ।
एक ही ज्ञान अवस्था भेद से श्रुत, चिन्ता और भावना की पर्याय को प्राप्त करता है ।
महान् पुण्योदय से हमें सर्वश्रेष्ठ मनुष्य जन्म और वीतरागशासन की प्राप्ति हुई है, अतः इस जीवन की सफलता के लिए बीतराग वचन रूप 'श्रुत' को भावनाज्ञान में परिणत करने की आवश्यकता है ।
गत पत्रों में 'वैराग्यशतक' की चार गाथाओं पर विवेचन किया था । मुझे प्रसन्नता है कि वह तुम्हें रुचिकर लगा | मृत्यु की मंगल यात्रा- 94