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का अपना व्यक्तित्व रहता है परन्तु निर्विशेषवादी व्यक्त रूप नहीं चाहते हैं इसलिए वे ब्रह्म ज्योति में चिंगारियों के रूप में पाये जाते हैं । जैसे सूर्य का प्रकाश अनेकों अणु जैसे सूक्ष्म अंशों का बना है वैसे ही ब्रह्म ज्योति भी अनेकों आत्मा रूप चिंगारियों की बनी है ।
कुछ भी हो, जीव होने के कारण हम आनन्द लेना चाहते हैं । सिर्फ अस्तित्त्व ही पर्याप्त नहीं है । हम आनन्द चाहते हैं और साथ ही साथ अस्तित्त्व भी । अपनी पूर्णता में जीव तीन गुणों के बने हैंसत्य, ज्ञान और आनन्द । जो जीव ब्रह्म ज्योति में रहते हैं वे कुछ समय तक पूरे ज्ञान के साथ ब्रह्म से मिल गये हैं, रह सकते हैं, परन्तु उन्हें वहाँ आनन्द नहीं मिलता है क्योंकि वह चीज वहाँ नहीं है । कोई एक कमरे में कुछ समय तक ही रह सकता है और कोई पुस्तक पढ़ कर या किसी विचार में विलीन रह कर आनन्द ले सकता है परन्तु यह सम्भव नहीं है कि वह उस कमरे में वर्षों तक रहे, निश्चय ही वह सदैव नहीं रह सकता है । इसलिए जो अव्यक्त रूप से परम सत्य में मिल जाते हैं उनके लिए इस संसार में कुछ सङ्गत पाने के लिए फिर से गिरने का बहुत अवकाश है। यह श्रीमद्भागवतम् का मत है । अवकाश में यात्रा करने वाले यात्री हजारों मील जा सकते हैं परन्तु यदि उन्हें अन्य लोकों में विश्राम करने की जगह नहीं मिलेगी तो वे इस पृथ्वी पर वापिस आयेंगे। किसी भी तरह विश्राम की आवश्यकता है। अव्यक्त रूप में विश्राम अनिश्चित है। इसलिए श्रीमद्भागवतम् कहता है कि इतनी चेष्टा करने के बाद भी यदि निर्विशेषवादी आध्यात्मिक विश्व में प्रवेश करें और अव्यक्त एकता पायें तब भी वे इस संसार में फिर से वापिस आते हैं क्योंकि उन्होंने भगवान् की भक्ति और प्रेम को ठुकराया है। इसलिए जब तक हम इस पृथ्वी पर हैं हमें कृष्ण भगवान् की सेवा और प्रेम का अभ्यास करना सीखना चाहिए । यदि हम इसे सीख लेंगे तो वैकुण्ठ लोक में प्रवेश कर सकते हैं । निर्विशेषवादियों की परव्योम में अस्थाई परिस्थिति होती है। अकेलेपन के कारण