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दीर्घायुता का रहस्य : १३७ समन्वय किया। इससे अधिक तो ईश्वर-कृपा ही कह सकता हूं। सृष्टि अनाथ नहीं है। इसका संचालक अवश्य है। वह सृष्टि के अन्दर ही रहकर अपने नियम के अनुसार सबकुछ करना चाहता है। उसकी रचना और योजना हम पूरी समझ नहीं सकते। किन्तु ऐसी रचना और योजना है, इस विश्वास से शांति और बल मिलते हैं, इतना अवश्य कह सकता हूं।
बुढ़ापा या वार्धक्य की चिन्ता मुझे कभी हुई नहीं है। शक्ति और सामर्थ्य बढ़े, ऐसी इच्छा कभी की नहीं थी, इसलिए शरीर की और सब इन्द्रियों की शक्ति निसर्ग के क्रम से घटेगी, इसकी चिन्ता भी मुझे कभी नहीं हुई।
बचपन में कई शक्तियां मनुष्य में नहीं होतीं। बाद में वे आती हैं। इसका दुःख हमने कभी नहीं किया और प्रसन्नता से बचपन पूरा किया, तो बुढ़ापे में कई शक्तियां क्षीण हो गई, इन्द्रियां काम नहीं देतीं, इसका दुःख भी हम क्यों करें? कोई उपन्यास हो, उसका अन्त होना ही चाहिए। उपन्यास खत्म होने आया, लेखक अपना कथानक समेटने की तैयारी करता है, यह देखकर हम थोड़े ही दुःखी या चिन्तित होते हैं ? बचपन में बचपन के रसों का आनन्द लिया, बड़े होते ही बचपन की बातें बचपना कहकर छोड़ दी, और प्रौढ़ उम्र में लायक प्रौढ़ महत्वांकाक्षाएं आजमाई। उनका भी अनुभव हुआ। कई बातें निस्सार-सी मालूम हुईं । कई बातों का अनुभव मिलने पर तृप्ति हुई और जीवन के अनुभव-समृद्धि की शान्ति फैल गई। ये सब सन्तोष के ही विषय हैं। ___जो पुरुषार्थ हमने शुरू किया, वही नये ढंग से और बड़े पमाने पर औरों को चलाते देखते अपार सन्तोष होता है।
जेल-निवास में जिस तरह का आहार मिला, उसके कारण दांत जल्दी बिगड़ गये। उनको निकालना पड़ा। उनकी जगह